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________________ ४ धर्मशास्त्र का इतिहास पुराणों की अत्युक्तियों को छोड़ दिया जाय तो एकादशी पर किये जाने वाले उपवास की अन्तर्हित धारणा आध्यात्मिक सिद्ध होती है। यह मन का अनुशासन है। इसका तात्पर्य यह है कि प्रसन्नतापूर्वक उपवास करने से मनुष्य को गहित वासनाओं से निवृत्ति मिलती है और मन की ऐसी अवस्था हो जाती है जब कि परमात्मा का अनुग्रह प्राप्त होता है। देखिए भगवद्गीता (२०५९)। बृहदारण्यकोपनिषद् में आया है---'ब्राह्मण लोग वेदाध्ययन, यज्ञों, दानों एवं निराहार से उस महान् आत्मा को जानने की इच्छा रखते हैं।" एकादशी पर उपवास दो प्रकार का होता है—प्रथम वह है जिसमें निषेध का परिपालन होता है, यथा पका भोजन न ग्रहण करना, और दूसरा है व्रत का रूप। प्रथम में सभी लोग, यहाँ तक कि पुत्रवान् गृहस्थ भी, कृष्ण पक्ष में भी इसे करते हैं, किन्तु दूसरे में सन्ततिमान् गृहस्थ इसे कृष्ण पक्ष में नहीं करता; उसे संकल्प नहीं करना चाहिए, उसे केवल भोजन (पका भोजन) नहीं करना चाहिए, किन्तु ब्रह्मचर्य आदि का पालन करना चाहिए। शयनी एवं बोधिनी के मध्य कृष्ण पक्षों की एकादशियों पर पुत्रवान् गृहस्थों को भी यह व्रत करने का अधिकार है। इसी प्रकार जो विष्णु में लय हो जाता चाहते हैं, लम्बी आयु चाहते हैं, पुत्र चाहते हैं उन्हें दोनों पक्षों की एकादशियों पर काम्य व्रत करना चाहिए। वैष्णव गहस्थों को कृष्ण पक्ष की एकादशियों पर भी उपवास करना चाहिए। एकादशी व्रत सभी के लिए नित्य है, यहाँ तक कि शिव, विष्णु एवं सूर्य के भक्तों के लिए भी। व्रत रूप में भी उपवास के दो प्रकार हैं, नित्य एवं काम्य। संक्षेप में निर्णयसिन्ध एवं धर्मसिन्ध में उल्लिखित ये ही नियम हैं। केवल उपवास एवं उपवास-प्रत' में मुख्य अन्तर यही है कि प्रथम में कोई संकल्प नहीं होता, व्यक्ति केवल भोजन का त्याग करता है, किन्तु दूसरे में संकल्प होता है और अन्य बातें भी होती हैं। अब हम एकादशीव्रत का संक्षिप्त वर्णन उपस्थित करेंगे। नारद० (पूर्वार्ध, २३।१२) में निम्न विधि है--दशमी तिथि में व्रती को दन्त धावन क्रिया के उपरान्त स्नान करना चाहिए, विष्णु मूर्ति को पंचामृत से नहलाना चाहिए और उपचारों के साथ उसकी पूजा करनी चाहिए। एकादशी को स्नान करने के उपरान्त उसे मूर्ति को पंचामृत में स्नान कराकर चन्दन, पुष्पों आदि से विष्णु-पूजा करनी चाहिए और मन्त्रोच्चारण करना चाहिए“एकादश्यां निराहारः स्थित्वा चाहं परेऽहनि। भोक्ष्येऽहं पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवाच्युत॥" (नारद, पूर्वार्ध, २३।१५)। उसे भोजन नहीं करना चाहिए, इन्द्रिय-निग्रह करना चाहिए, विष्णु-मूर्ति के समक्ष पृथिवी पर बैठना चाहिए, विष्णु से सम्बन्धित संगीत, गीत एवं नृत्य' में संलग्न जागते रहना चाहिए तथा पुराणोक्त विष्ण-गाथाएँ सुननी चाहिए। द्वादशी को स्नान करके मूर्ति को दूध में स्नान कराकर निम्न प्रार्थना करनी चाहिए--"अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन केशव। प्रसीद सुमुखो भूत्वा ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ॥” (नारद, पूर्वार्ध, २३।२०; धर्मसिन्धु, पृ० २०; हे०, व्रत, भाग १, पृ० १००७)। इसके उपरान्त ब्राह्मणों को भोजन देना चाहिए तथा यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिए। तब आह्निक पंचयज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेव, बलि एवं अतिथिपूजन) करना चाहिए और स्वयं सम्बन्धियों के साथ मौन रूप से भोजन करना चाहिए। उपवास व्रत में संलग्न रहते समय चाण्डालों, महापापियों, नास्तिकों, कदाचरण करने वालों, परनिन्दकों को नहीं देखना चाहिए, उसे वृषली के पति, अयोग्य लोगों के लिए यज्ञ कराने वाले पुरोहित, धन-लिप्सा से मन्दिर-प्रतिमाओं की पूजा करने वाले, धन के लिए गाने ३. विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्ज रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ गीता २५९। ४. स वा एष महानज आत्मा...तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन। बह० उप० ४।४।२२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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