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________________ एकावशी-विवेचन एवं दवा करने वाले, मागध, देव-ब्राह्मण विरोधी, दूसरे के यहाँ भोजन करने के अभ्यासी या लोमी एवं बलात्कार करने वाले से बात नहीं करनी चाहिए। उपवास व्रत में संलग्न व्यक्ति को शरीर-मन से पवित्र रहना चाहिए, नियन्त्रित रहना चाहिए और सबका भला करने को उद्यत रहना चाहिए। मनु (३।१५२) का कथन है कि धन लेने वाले वैद्यों एवं पूजा-वृत्ति वाले पुजारियों को श्राद्ध में नहीं बुलाना चाहिए। एकादशी व्रत की विधि के विषय में ब्रह्मवैवर्त (४।२६।१-९२) में भी उल्लेख है। यह ध्यान देने योग्य है कि एकादशी व्रत में होम की व्यवस्था नहीं है। धीरे-धीरे ऊपर वर्णित विधि में बहुत-सी बातें जुड़ती चली गयीं। उपवास व्रत में संलग्न व्यक्ति को तीन दिनों के भीतर चार बार भोजन-त्याग करना चाहिए; दशमी को केवल एक बार मध्याह्न में खाना चाहिए, एकादशी को दोनों काल उपवास करना चाहिए तथा द्वादशी को एक बार भोजन त्याग करना चाहिए। सामान्य नियम यह है कि व्रतों के लिए संकल्प प्रातःकाल किया जाता है, किन्तु एकादशी में निबन्धों ने अपवाद रख दिये हैं। का०नि० (पृ० २६७) के मत से दशमी की रात्रि में नियमों के विषय में संकल्प करना चाहिए। यदि एकादशी दशमी से संयुक्त हो तो उपवास-संकल्प रात्रि में होना चाहिए, यदि दशमी अर्धरात्रि से आगे बढ़ जाय और एकादशी इसमें संयुक्त हो जाय तो संकल्प दूसरे दिन अपराल में करना चाहिए। हे० (व्रत, भाग १, पृ० १००६) एवं का०नि० (पृ० २६८) ने व्यवस्था दी है कि पुष्पों आदि से अलंकृत मण्डप में विष्णु-प्रतिमा की पूजा होनी चाहिए। स्कन्द० (हे०, व्रत, भाग १,१० १००८) में आया है कि द्वादशी को उपवास तोड़ते समय तुलसीदल से युक्त नैवेद्य ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इससे करोड़ों हत्याओं के पापों से छुटकारा मिलता है। मध्यकालीन निबन्धों में एकादशी व्रत की विधि का अतिशय विस्तार किया गया है। देखिए धर्मसिन्धु ९)। यहाँ स्थान-संकोच से इसका वर्णन नहीं किया जायगा। एकादशी का धार्मिक स्वरूप बढ़ता गया और चान्द्र वर्ष के बारह महीनों की चौबीस एकादशियों एवं मलमास की दो एकादशियों को विभिन्न संज्ञाएँ दे दी गयीं। ये संज्ञाएँ कब दी गयीं, कहना सम्भव नहीं है, किन्तु कुछ तो २००० वर्ष प्राचीन हैं। नामों में अन्तर की व्याख्या यहां नहीं की जायगी। एक कारण यह प्रतीत होता है कि कुछ पुराणों में मास पूर्णिमान्त हैं तो कुछ में अमान्त, और पूर्णिमान्त गणना में जो भाद्र कृष्ण है वह अमान्त गणना में श्रावण कृष्ण है। ज्येष्ठ शुक्ल की एकादशी को निर्जला कहते हैं क्योंकि इसमें जल का भी प्रयोग नहीं होता, केवल स्नान करते समय या आचमन करते समय ही जल प्रयोग होता है। ग्रीष्म ऋतु के ज्येष्ठ मास में निर्जल रहना बड़ा कष्टसाध्य होता है, अतः निर्जला एकादशी की विशिष्ट व्यवस्था की गयी है (हे०,वत, भाग १,पृ० १०८९-१०९१)। आषाढ़ शुक्ल की एकादशी की रात्रि से कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन तक चार मासों तक विष्णु शयन करते हैं, अतः इन दो एकादशियों को क्रम से शयनी (विष्णु के शयन से सम्बन्धित) एवं प्रबोधिनी या प्रबोधनी (विष्णु के ५. चैत्र शुक्ल से लेकर एकादशी के २४ नाम क्रमशः ये हैं-कामदा, वरूथिनी, मोहिनी, अपरा, निर्जला, योगिनी, शयनी, कामिका (या कामदा), पुत्रदा, अजा, परिवर्तिनी, इन्दिरा, पापांकुशा, रमा, प्रबोधिनी (बोधिनी), उत्पत्ति, मोक्षदा, सफला, पुत्रदा, षट्तिला, जया, विजया, आमलकी (या आमर्वकी), पापमोचनी। मलमास की दो एकादशियों के नाम पद्म० ६।६४ एवं ६५ के अनुसार कमला एवं कामदा हैं, किन्तु अहल्याकामधेनु में कंवल्यवा एवं स्वर्गवा हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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