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________________ एकादशी-व्रत के कर्तव्य ४३ मार्कण्डेय (हे०, काल, पृ० १७६; का०नि०, पृ० २६१; का० वि०, पृ० ४३०) ने कहा है कि कोई एकभक्त, नक्त, अयाचित, पूर्णोपवास या दान की विधियों का आश्रय ले सकता है, किन्तु उसे (एकादशी के साथ) द्वादशीव्रत के सम्पादन के फलों से वंचित नहीं होना चाहिए। यहाँ पूर्ण उपवास के स्थान पर बहुत-से विकल्प रखे गये हैं, जिनकी व्याख्या आवश्यक है, किन्तु इसके पूर्व मनु (११।३०, शान्ति० १६५।१७) का एक नियम द्रष्टव्य है--'यदि कोई प्रभु (शक्त) होने पर भी अर्थात् किसी कृत्य की प्रमुख व्यवस्थाओं के योग्य होने पर भी वचनों द्वारा प्रतिपादित विकल्पों का आश्रय लेता है, तो वह दुर्मति है और कृत्य से उत्पन्न पारलौकिक फलों की प्राप्ति नहीं कर सकता।' अतः एकमक्त, नक्त एवं अयाचित का सहारा पारलौकिक फलों की प्राप्ति नहीं करा सकता।' अतः एकभक्त, नक्त एवं अयाचित का सहारा तभी लेना चाहिए जब कि व्यक्ति कठोर व्रत का पालन करने में अशक्त हो। एकभक्त का अर्थ है आधे दिन के उपरान्त केवल एक बार दिन में खाना। एकभक्त व्रत भी है जो स्वतन्त्र रूप से भी सम्पादित होता है। अनुशासनपर्व (१०६।१७-३०) ने मार्गशीर्ष से कार्तिक तक किये जाने वाले एकभक्त व्रत के लिए फल घोषित किये हैं और अन्य स्थान (१०७।१३-१२६) पर एक मास के तीस दिनों में किये गये व्रत के फलों का विस्तार से उल्लेख किया है (देखिए कृत्यकल्पतरु, पृ० ४५७-४६८, जहाँ अनुशासन० का सम्पूर्ण उद्धरण है ; हेमाद्रि, व्रत, भाग २, पृ० ९३० ३१) और देखिए कृत्यकल्पतरु (पृ० ४१९-४२१), कृ० र० (पृ० ४०६-७ और आगे) एवं हे० (व्रत, भाग २, पृ०७४८७९८) जहाँ अनुशासन (१०६।१७-३०) में विभिन्न स्थानों और मासों में किये जाने वाले एकभक्त का उल्लेख है। नक्त-लिंगपुराण, नारद एवं अन्य पुराणों में नक्त का वर्णन है (लिंग, पूर्वार्ध, ८३।१०।१२-१३६ ; नारद०, उत्तर, ४३।११-१२); भीख मांगना उपवास से श्रेष्ठ है, अयाचित भोजन भीख से उत्तम है, नक्त अयाचित से उत्तम है, अतः नक्त-विधि करनी चाहिए। हविष्य खाना, स्नान, सत्यता, अल्प भोजन, अग्नि में आहुतियाँ देना, भूमिशयन-- ये छ: नक्त व्रत में किये जाने चाहिए। नक्त के समय के विषय में विभिन्न मत हैं। हेमाद्रि (काल,पु०११२-११५) ने नक्त काल का वर्णन विस्तार के साथ किया है। प्रथम नियम यह है कि नक्त व्रत में विद्धा होने पर वही तिथि ग्राह्य होती है जो प्रदोष में होती है। स्कन्द० के अनुसार सूर्यास्त के उपरान्त ६ घटिकाओं तक प्रदोष-अवधि रहती है, किन्तु विश्वादर्श के मत में यह सूर्यास्त के उपरान्त ३ घटिकाओं की होती है। पुरुषार्थचिन्तामणि ने दूसरी अवधि को प्रदोष की उचित अवधि ठहराया है। कुछ लोगों ने तारागण के प्रकट हो जाने की अवधि में नक्त को उचित ठहराया है और कुछ लोगों ने सूर्यास्त के पूर्व एक प्रहर (दो घटिका) की अवधि ठीक मानी है। वास्तव में मुख्य काल वही है जब तारे प्रकट हो जाते हैं, अन्य काल गौण हैं। नक्त के दो अर्थ हैं--प्रथम काल-अवधि तथा दूसरा नक्त-काल में भोजन-ग्रहण। उपवास के अतिरिक्त नक्त एक विशिष्ट व्रत भी है। देखिए व्रतो की तालिका। अयाचित का तात्पर्य है ऐसा भोजन करना जो बिना मांगे या प्रार्थना किये प्राप्त होता है। संकल्प यह है--रात या दिन में मैं माँगकर या प्रार्थना करके प्राप्त कर भोजन नहीं करूंगा।' इसके लिए कोई निश्चित काल नहीं है, क्योंकि किसी भी समय किसी द्वारा भोजन लाया जा सकता है। किन्तु ऐसा भोजन केवल एक बार किया जाता है। यदि पत्नी या मृत्य बिना किसी निर्देश के पका भोजन ले आयें तो उसे ही खाना चाहिए। _ 'एकगक्त', 'नक्त' एवं 'अयाचित' शब्द प्राचीन काल में प्रायश्चित्तों (यथा कृच्छ्र) के सिलसिले में प्रयुक्त होते थे, जो कालान्तर में पुराणों द्वारा उपवास के विषय में प्रयुक्त हो गये (देखिए आप० ध० सू० १।९।२७।७; गौतम, २६।१-५; याज्ञ० ३।३१८)। पद्मपुराण (उत्तरखण्ड, अध्याय ३६) ने एकादशी के जन्म की एक कल्पनात्मक गाथा दी है। Jain Education International Jain Education International For Private & Personal use only. www.jainelibra
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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