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धर्मशास्त्र का इतिहास
एकादशी-माहात्म्य पर एक लम्बी उक्ति है ( हेमाद्रि, काल, पू० १४६; का० नि० पू० २७३ - २७४) । कुछ श्लोकों का अर्थ यों है— 'एकादशीव्रत से उत्पन्न अग्नि से सहस्रों जीवनों में किये गये पापों का ईंधन जलकर भस्म हो जाता है । अश्वमेध एवं वाजपेय जैसे सहस्रों यज्ञ एकादशी पर किये गये उपवास के सोलहवें अंश तक भी नहीं पहुँच सकते। यह एकादशी स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करती है, राज्य एवं पुत्र देती है, अच्छी पत्नी देती है और शरीर को स्वास्थ्य देती है। गंगा, गया, काशी, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, नर्मदा, देविका, यमुना, चन्द्रभागा हरि के दिन के समान नहीं हैं।' देखिए पद्मपुराण (आदिखण्ड, ३१।१५७, १६०, १६१ एवं १६२ ) । अनुशासन ( १०७ १३६, १३७ एवं १३९) में उपवास की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा है । पद्म० ( ब्रह्मखण्ड, १५।२ - ४ ) में आया है -- 'एकादशी नाम श्रवण मात्र से यमदूत शंकित हो जाते हैं। सभी व्रतों में श्रेष्ठ शुभ एकादशी पर उपवास करके हरि को प्रसन्न करने के लिए रात्रि भर जागना चाहिए और विष्णुमन्दिर के मण्डप को पर्याप्त रूप से सजाना चाहिए । जो व्यक्ति तुलसीदलों से हरिपूजा करता है वह एक दल से ही करोड़ों यज्ञों का फल प्राप्त करता है।' वराह० (अध्याय ३०) में आया है कि ब्रह्मा ने कुबेर को एकादशी दी और उसने ( कुबेर ने उसे उस व्यक्ति को दिया जो संयमित रहता है, शुद्ध रहता है, केवल वही खाता है जो पका हुआ नहीं है; कुबेर प्रसन्न होने पर सब कुछ देता है । पद्म० (ब्रह्मखण्ड, १३।५३) ने एक नारी का आख्यान लिखा है -- वह अति झगड़ालू थी, अपने प्रेमी के विषय में सोचती थी और इसके कारण वह अपने पति द्वारा निन्दित हुई और पीटी गयी। वह क्रोधित होकर बिना भोजन किये रात्रि में मर गयी । वह उपवास करने के कारण (जो जान-बूझ कर या प्रसन्नतापूर्वक नहीं किया गया था, प्रत्युत क्रोधावेश में किया गया था) शुद्ध हो गयी। गरुड़पुराण ( १ । १२७।१२) में आया है कि यदि एक पलड़े पर सम्पूर्ण पृथिवी का दान रखा जाय और दूसरे पर हरि का दिन ( एकादशी) तो एकादशी महापुण्या एवं श्रेष्ठ ठहरती है । आषाढ़ शुक्ल की एकादशी को महा-एकादशी एवं शयनी कहा जाता है।
ऊपर हमने व्रतों के अधिकारियों से सम्बन्धित सामान्य नियमों का उल्लेख कर दिया है, अब यहाँ एकादशी से सम्बन्धित 'कुछ विशिष्ट नियमों का वर्णन करेंगे। नारद (का० नि०, पृ० २५७; ए० त०, पृ० ३५ ) ने व्यवस्था दी है - 'जो मानव आठ वर्ष से अधिक अवस्था का हो और ८० वर्ष से कम अवस्था का हो, यदि वह मोहवश एकादशी के दिन भोजन कर लेता है, वह पापी होता है।' यही बात कात्यायन में भी है। इन दोनों उल्लेखों से प्रकट है कि सभी जातियों एवं आश्रमों के लोगों को एकादशीव्रत करने का अधिकार है, किन्तु उपर्युक्त क्यों (उम्र) की दशाओं का पालन आवश्यक है ।
- लोगों की दुर्बलताओं को ध्यान में रखकर ऋषियों ने एकादशी पर सम्पूर्ण उपवास के नियम को ढीला कर दिया । नारदपुराण (उत्तरार्ध, २४।७-८) में आया है - 'मूल, फल, दूध एवं जल का सेवन मुनीश्वर लोग एकादशी पर कर सकते हैं, किन्तु किसी ऋषि ने ऐसा नहीं प्रदर्शित किया है कि एकादशी पर पका हुआ भोजन खाना चाहिए।' वायुपुराण (का० नि०, पृ० २६१; का० वि०, पृ० ४३१; व० क्रि० कौ०, पृ० ५७ ) ने व्यवस्था दी है कि रात्रि में हविष्य, भात के अतिरिक्त कोई भोजन, फल, तिल, दूध, जल, घी, पंचगव्य, वायु, इनमें से प्रत्येक आगे वाला अपने से पीछे वाले से (एकादशी पर ) अपेक्षाकृत गृहणीय है । वायुपुराण में सम्पूर्ण उपवास (जल मी नहीं) की चर्चा है । बौधायन ( हेमाद्रि, काल, पृ० १७६ ) ; का० नि० पू० २६१) ने घोषित किया है कि जो पूर्ण उपवास के लिए अयोग्य हैं, या जो ८० वर्ष से अधिक वय वाले हैं उन्हें एकमक्त होना चाहिए या अन्य विकल्पों का सहारा लेना चाहिए। मस्त्य ० ( व० क्रि० कौ० पू० ६९) में आया है कि जो एकादशी को उपवास करने में अशक्त हों उन्हें नक्त भोजन करना चाहिए (एक बार रात्रि में ), यदि कोई बीमार हो तो वह अपनी ओर से अपने पुत्र या किसी अन्य को उपवास करने को कह सकता है।
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