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बौद्ध धर्म के विलोप के कारण
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सन्तोष के साथ पूर्ण अवस्था को प्राप्त कर संसार से चला जाना-ऐसा था बुद्ध का महत्त्वपूर्ण एवं गरिमामय जीवन। इसके बल पर उनका अति उदात्त एवं विशिष्ट व्यक्तित्व मनुष्यों को अनायास अपनी ओर आकृष्ट कर लेता था। एडविन अर्नाल्ड ने अपनी प्रसिद्ध कविता 'लाइट आव एशिया' की भूमिका (पृ० १३) में बुद्ध की शिक्षा के विषय में उन्मुक्त भाव से प्रशस्ति-गान किया है-"यह श्रद्धास्पद धर्म, जिसमें सार्वभौम आशा की अमरता है, असीम प्यार की अक्षयता है, अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति के विश्वास में कभी न क्षय होने वाला तत्त्व है तथा मानवीय स्वतन्त्रता (विमुक्ति) के विषय में किया गया अब तक का सब से गर्वीला वचन है।" बुद्ध द्वारा जो प्रकाश-दीप जलाया गया वह योग्य एवं सामर्थ्यवान् शिष्यों के हाथों तब तक जलता रहा जब तक छठी शती में बौद्ध धर्म अपनी महत्ता के शिखर पर नहीं पहुंच गया। उस काल में एक प्रतिक्रिया उठ खड़ी हुई थी। प्राचीन बौद्ध धर्म में पर्याप्त परिवर्तन हो गये थे और आदर्शों में भी परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे थे। हमने इस विषय में ऊपर देख लिया है। इस धर्म में ईश्वर के विषय में कोई स्पष्ट धारणा नहीं थी, बहुत-से ऐसे सम्प्रदाय उठ खड़े हुए जो पूर्णतया ईश्वरवादी थे, स्वयं बुद्ध की पूजा की जाने लगी, और लोग उन्हें भगवान् मानने लगे, वज्रयानी तान्त्रिक सम्प्रदायों के विचित्र सिद्धान्तों एवं दुष्प्रयोगों के चंगुल में बहुत-से सम्प्रदाय पड़ गये। इसका परिणाम यह हुआ कि बौद्ध धर्म कई विरोधी रूढियों का सम्मिश्रण-सा हो गया और पारस्परिक द्रोह एवं झगड़ों से इसकी दीवारों में दरारें पड़ने लगीं। जब बुद्ध का देहावसान हो गया उसी समय सिद्धान्तों को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ, जो राजगृह में बुलायी गयी प्रथम संगीति में प्रकट हुआ, दूसरी संगीति एक सौ वर्षों के उपरान्त वेसालि (वैशाली) में हुई और तीसरी अशोक के शासन-काल में पाटलिपुत्र में हुई। परम्पराओं से यह प्रकट है कि कुल चार संगीतियाँ हुईं जिनमें शास्त्रीय मापदण्ड निर्धारित किये गये, किन्तु अशोक (लगभग २५० ई० पू०) के पूर्व की कोई पालि पुस्तक अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। इन विषादों एवं भांति-भांति के उत्तरों-प्रति-उत्तरों के कारण तथा उनके फलस्वरूप जो धर्म-भेदमूलक शाखाप्रति-शाखाएँ उत्पन्न हुई उनसे बौद्ध धर्म की हानि हई। श्री एन० जे० ओ' कोनोर ने इस कारण को उन चार प्रमुख कारणों में प्रधान माना है जिनके फलस्वरूप बौद्ध धर्म का ह्रास होता चला गया और अन्त में यह एक दिन भारत से विलीन हो गया।
(३) सातवीं शती का अन्त होते-होते भारत कई छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों में बँट गया, जो सदा एक दूसरे से युद्ध करते रहते थे। बौद्ध धर्म को अशोक, कनिष्क एवं हर्ष जैसे समर्थ, प्रभु-सत्तासम्पन्न, उत्साही एवं प्रजावत्सल सम्राटों का आश्रय नहीं प्राप्त हो सका। अब उसे राजकीय आश्रय मिलना असम्भव था, हाँ, बंगाल के पाल-वंशीय राजाओं से कुछ वर्षों तक स्नेह अवश्य मिला, किन्तु बौद्ध धर्म अब ह्रास की ओर ही उन्मुख हो गया था।
(४) बौद्ध धर्म के महान् सिद्धान्तों के योग्यतम एवं उद्भट व्याख्यातागण अपने धर्म के प्रचारार्थ इस देश को छोड़कर अन्य देशों में चले गये। डा. राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक 'इण्डिया एण्ड चाइना' में ऐसे २४ महत्त्वपूर्ण भारतीय विद्वानों का उल्लेख किया है जो बुद्ध के उपदेशों के प्रचारार्थ चीन में तीसरी शती से ९७३ ई० तक जाते रहे (पृ० २७); उन्होंने कुछ ऐसे चीनी विद्वानों का उल्लेख किया है जो बौद्ध धर्म-सम्बन्धी पवित्र स्थलों के दर्शनार्थ एवं बौद्ध धर्म की शिक्षा ग्रहण करने के लिए भारत में आते रहे हैं (पृ० २७-२८)।
(५) गौतम बुद्ध द्वारा स्थापित एवं प्रकाशित उच्च नैतिक आदर्शों का पालन उनके अधिकांश अनुयायियों को, विशेषत: उनके व्यक्तिगत उदाहरणों के अन्तर्हित हो जाने के उपरान्त, कष्टकारी लगा होगा। महापरिनिब्बानसुत्त (सैक्रेड बुक आव दि ईस्ट, जिल्द ११, पृ० १२७) में आया है कि उस सुमद्द ने, जो बुढ़ौती में संघ में सम्मिलित हुआ था, बुद्ध के निर्वाण के उपरान्त अपने उन साथियों से कहा जो बहुत दुखी थे-“रोओ नहीं, विलाप न करो। हम महान् श्रमण से छुटकारा पा गये। 'यह तुम्हारे योग्य नहीं है, यह तुम्हें शोभा नहीं देता' इस प्रकार कहे जाने पर
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