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धर्मशास्त्र का इतिहास
हम क्रोध में आ जाया करते थे; अब हम मनोनुकूल करेंगे और जो करना नहीं चाहते हैं वह नहीं करेंगे।" सामान्य जन एक ही प्रकार के उपदेशों को सदैव नहीं पसन्द करते, यथा, इस प्रकार के विचार कि क्लेश ही मनुष्यों के भाग्य में है, नीरस मठ-जीवन, मनोभावों के प्रति विराग तथा निर्वाणप्राप्ति का वचन जो कदाचित् ही सुन्दर ढंग से व्याख्यायित हो सका हो । निर्वाण का अर्थं सम्भवतः बुद्ध के मतानुसार था 'अहंता एवं कामना का नाश, एक ऐसी आनन्द-स्थिति जो ज्ञानातीत थी; न कि सम्पूर्ण नाश या समाप्त हो जाना ।' किन्तु अधिकांश लोग इस अन्तिम अर्थ को ही निर्वाण मानते थे। बुद्ध व्यर्थ की कल्पनात्मक स्थिति के प्रतिकूल थे, विशेषतः उन बातों के विषय में जो उनके विशुद्ध नैतिक प्रयत्न एवं उद्देश्य के लिए सर्वथा अनुपयुक्त थीं और उनसे मेल नहीं रखती थीं। बहुत-से दार्शनिक एवं कल्पनात्मक प्रश्न, यथा - यह विश्व नित्य है या नहीं, यह अनन्त है या अन्तयुक्त, आत्मा वही है जो देह है या देह से भिन्न है, तथागत मृत्यु के उपरान्त रहते हैं या नहीं' आदि प्रश्न बुद्ध द्वारा अनुत्तरित हो रहे (देखिए मज्झिमनिकाय, ६३, ट्रॅकनर संस्करण, जिल्द १) । धीरे-धीरे भिक्षुओं एवं भिक्षुकियों के मठ प्रमादों, विषयों एवं अनैतिक आचरणों के अड्डे हो गये और वज्रयानी तन्त्रवादियों के समान पथभ्रष्ट लोगों के दुष्कर्मों एवं व्यभिचारों के केन्द्र बन गये । महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने, जो किसी समय स्वयं बौद्ध भिक्षु थे, अपने निबन्ध 'वज्रयान एण्ड दि ८४ सिद्धज़' (जर्नल, एशियाटिक ० जिल्द २२५, १९३४, पृ० २०९ - २३० ) में लिखा है - " मठ एवं मन्दिर लोगों द्वारा पवित्र मन से दिये गये धन से परिपूर्ण थे । भिक्षु का जीवन साधारण उपासक की अपेक्षा अधिक सुखमय था । अनुशासन ढीला पड़ गया और अयोग्य व्यक्ति संघ में प्रविष्ट हो गये ।" सुन्दर चित्रकारियों, एकान्त भूमि, देवियों एवं देवताओं के परिवेष में जो उन्मुक्त जीवन प्रवाहित होता चला आ रहा था, इससे लोगों का ध्यान विषय-वासना, भोग-लिप्सा, मैथुन की ओर अवश्य आ गया होगा । कथावत्थु ( २३।१) से हमें ज्ञात है कि अन्धक शाखा किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए मैथुन की अनुमति देती थी; यह रहस्यवादी सम्प्रदाय में सम्मिलित हो गया था ।" दक्षिण में आकर मन्त्रों के प्रयोग, मानस आचरणों एवं इन्द्रियों के आनन्द के लिए कुछ विशिष्ट क्रियाओं के समावेश से वज्रयान पूर्ण हो गया ।"
(६) गौतम (९।४७, ६८, ७३ ), मनू (४/१७६, २०६, १०/६३ ) एवं याज्ञवल्क्य ( १।१५६, ३।३१२३१३) जैसी स्मृतियों ने वेद एवं ब्राह्मण को सम्मान देने के साथ-साथ चारों वर्णों के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, दान, दम, दया, शान्ति, ब्रह्मचर्यं तथा अन्य गुणों पर बल दिया है, जैसा कि बुद्ध एवं अन्य प्रारम्भिक बौद्ध
१७. डा० ए० एस० अल्तेकर (१७ वीं अखिल भारतीय ओरिएण्टल कान्फ्रेंस, अहमदाबाद, १९५३, पु० २४३-२४६) द्वारा आचारसार ( नवागन्तुक बौद्धों के लिए प्रतिपादित नियम) की श्रमणेर-टीका पर जो निबन्ध लिखा गया है उसमें भस्संनाओं का (जिनमें कुछ पृ० २४५ पर लिखित हैं) उल्लेख है, जिनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि भिक्षुओं की एक लम्बी संख्या ऐसी होती थी जिससे बौद्ध धर्म को कुख्याति मिलती थी। 'मिलिन्द - प्रश्न' (सेक्रेड बुक आववि ईस्ट, जिल्ब ३५, पृ० ४९-५० ) में एक प्रश्न है -- 'लोगों ने संघ की शरण क्यों ली है ?' इसके उत्तर में नागसेन ने महत्वपूर्ण उत्तर दिया है कि कुछ लोगों ने इसलिए संघ की शरण ली है कि उनके दुःख का अन्त हो जाये और वे पुनः दुःख में न पड़े, 'बिना विश्व से लगाव रखे पूर्णरूपेण चला जाना हमारा सब से बड़ा उद्देश्य हैं; . कुछ लोगों ने संसार का त्याग राजाओं के अत्याचार के भय से किया है; कुछ लोग लूटे जाने के भय से यहाँ आ गये हैं; कुछ ऋणों से परेशान हो यहाँ चले आये हैं और कुछ लोग केवल जीविका साधने के लिए यहाँ प्रविष्ट हो गये हैं ।
१८. एकाधिप्पायो मेथुनो धम्मो पटिसेवित्तन्वो ति । आमन्ता । कथावत्थ ( २३|१) ।
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