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धर्मशास्त्र का इतिहास
विरोधिता को स्वीकार नहीं करते थे और अपने दृष्टिकोण पर आरूढ रहते थे, उसी क्षण जला दिये जाते थे। राजा एवं भद्र लोग ऐसे अवसरों को अपनी उपस्थिति से सुशोभित करते थे। ऐसे उत्पीडनों की उस समय विशेष रूप से व्यवस्था की जाती थी जब कि भद्र लोगों के यहाँ विवाह होते थे या राज्य करने वाले राजा को पुत्रोत्पत्ति होती थी। तीन शतियों के मीतर जब तक यह महान् दारुण धार्मिक अत्याचार-नाटक खेला जाता रहा, लगभग ३,७५,००० व्यक्ति इसकी चपेट में आये, जिनकी १/१० संख्या जीते-जी जला डाली गयी (देखिए सेसिल राथ कृत उपर्युक्त पुस्तक, १९३६, पृ० ३१२)। हेनरी सी० ली ने अपने ग्रन्थ 'सुपरिस्टिशन एण्ड फोर्स' (१८७८, पृ० ४२६-४२७) में लिखा है - 'इंक्विजिशन का सारा ढंग इस प्रकार का था कि दारुण एवं भयंकर कष्ट का मिलना अवश्यम्भावी था । इसकी कार्यवाहियाँ गुप्त रहा करती थीं; बन्दी को उसके अभियोगों के विषय में किसी प्रकार की जानकारी नहीं रहा करती थी और न उन साक्ष्यों को वह जान पाता था जिन पर वे (अभियोग) आधृत रहते थे। वह अपराधी मान लिया जाता था और न्यायाधीश तथाकथित अपराधी द्वारा अपने ऊपर थोपे हुए अपराध को स्वीकार कर लेने के लिए उस पर अपनी सम्पूर्ण शक्तियाँ लगा देते थे । इसको पूर्ण करने के लिए कोई भी साधन अधम एवं क्रूर नहीं समझा जाता था।'
गोवा में पोर्तुगालों के शासन में हिन्दुओं की क्या स्थिति थी ? इस विषय में जानकारी प्राप्त करना शिक्षाप्रद होगा । गोवा में कुख्यात 'इंक्विजिशन' सन् १५६० ई० स्थापित हुआ और इसने अपना दारुण, असहिष्णु एवं अमानुष कृत्य लगभग २५० वर्षों तक चलाया। जो लोग इस विषय में अभिरुचि रखते हैं, वे सन् १९२३ में पोर्तुगाली सरकार द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ 'ए इण्डिया पोर्चुगूइजा' (जिल्द २, विशेषत: गोवा हाईकोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश एण्टोनियो डे नोरुन्हा का लेख 'ओस इण्डसे डे गोवा' पठनीय है) को पढ़ सकते हैं। जे० एच० डे कुन्हा राइवरा (जो भारत में सन् १८५५ से १८७० ई० तक पोर्तुगीज गवर्नर जनरल का सेक्रेटरी था) द्वारा लिखित निबन्ध 'हिस्टारिकल एसे आन दि कोनकनी लैंग्वेज़' का एक संक्षिप्त वक्तव्य प्रकाश डालने वाला सिद्ध होगा। उसमें इस प्रकार आया है ( पोर्चुगीज़ भाषा में ) -- ' अब हम उन कारणों की खोज करेंगे जो पोर्तुगाली शासन में कोंकणी भाषा की संस्कृति के विकास के पक्ष या विपक्ष में थे। विजय के प्रथम उत्साह में मन्दिर गिराये गये ; हिन्दू धर्म के सभी प्रतीक नष्ट कर दिये गये और वे सभी पुस्तकें, जो जन-भाषा में लिखित थीं, जिनमें मूर्तिपूजा विषयक सिद्धान्त एवं शिक्षाएँ प्रतिपादित थीं अथवा जिनमें ऐसी बातों का सन्देह था, जला डाली गयीं। एक ऐसी इच्छा परिव्याप्त थी कि जन-संख्या का वह सम्पूर्ण भाग, जो शीघ्रतापूर्वक ईसाई धर्मावलम्बी न बनाया जा सके, नष्ट कर दिया जाये; यह इच्छा केवल उसी काल में नहीं थी, प्रत्युत दो शतियों के उपरान्त भी बनी रही। एक व्यक्ति ऐसा भी था जिसने प्रशासक - जैसी गम्भीरता के साथ सरकार को ऐसा परामर्श दिया कि वह वैसी ही नीति का अनुसरण करती रहे ।"" अस्तु,
(२) भारत से बौद्ध धर्म के विलीन होने के दूसरे प्रमुख कारण पर अब हम प्रकाश डालेंगे। सिद्धार्थ (बुद्ध) द्वारा अपनी राजकीय स्थिति, युवती पत्नी, बच्चे एवं गृह का त्याग, दुःख एवं चिन्ता से मानव की मुक्ति के हेतु मार्ग ढूँढ़ने के लिए परिव्राजक बन इधर-उधर भटकना, उसके उपरान्त वर्षों तक शरीर को तप से सुखाना, ध्यान के लिए सर्वथा एकान्त में चला जाना, मार (कामदेव) से उनका युद्ध एवं अन्तिम विजय उनका ऐसा विश्वास कि मैंने मुक्ति का मार्ग ढूँढ़ लिया है, अपने द्वारा प्राप्त किये हुए सत्यों को लगभग ४५ वर्षों तक गाँव-गाँव, नगर-नगर घूम-घूम कर प्रसारित करना, यज्ञों में अबोध एवं मूक प्राणियों की बलि के विरोध में उनका अभियान, शान्ति एवं
१६. प्रो० ए० के० प्रियोल्कर कृत 'दि प्रिंटिंग प्रेस इन इण्डिया' (बम्बई, १९५८), पृ० १६१ से उद्धृत ।
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