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________________ ४९८ धर्मशास्त्र का इतिहास स्तुति में तथा चौथा एवं पाँचवाँ श्लोक बुद्ध (मुनीन्द्र) की प्रशंसा में कहा गया है। (१०) कन्नौज के गहड़वार राजा गोविन्दचन्द्र की चौथी रानी कुमारदेवी ने, जो एक कट्टर हिन्दू थी, एक विहार बनवाया, जिसमें उसने धर्मचक्र जिन अर्थात् बुद्ध की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की (एपि० इण्डि०, जिल्द ९, पृ० ३१९ एवं ३२४); (११) स्वयं गोविन्दचन्द्र ने ६ ग्रामों का दान शाक्यरक्षित नामक एक विद्वान् बौद्ध को (जो उड़ीसा से आया था) तथा उसके शिष्य को किया, जो जेतवन महाविहार (देखिए 'सहेत-महेत' नामक गोविन्दचन्द्र का पत्रक, संवत् ११८६, सन् ११२८-२९ ई०, एपि० इण्डि०, जिल्द ११, पृ० २० एवं २४) के संघ के कल्याण के निमित्त था। (१२) पूर्वी बंगाल के बौद्ध राजा श्रीचन्द्र के मदनपुर दान-पत्र से प्रकट है कि राजा ने अगस्तितृतीया पर स्नान करके बुद्धभट्टारक के सम्मान में शुक्रदेव नामक एक ब्राह्मण को भूमि-दान किया। (१३) चालुक्य त्रिभुवनमल्ल उर्फ 'विक्रमादित्य' (शक संवत् १०१७, १०९५-९६ ई०) के काल का दम्बल शिलालेख बुद्ध के स्तवन से आरम्भ होता है और उसमें दो विहारों के दान की चर्चा है, जिनमें एक बुद्ध का है जो धर्मपुर या धर्मवोलल (धारवाड़ जिले में दम्बल) के सेट्टियों द्वारा निर्मित हुआ और दूसरा तारादेवी का है, जो लोक्किगुण्डि (या आधुनिक लक्कुण्डि) के सेट्टि द्वारा बनवाया गया था। (१४) एपि० इण्डिका (जिल्द १६, पृ० ४८, ५१) के लक्ष्मणेश्वर के शिलालेख (सन् ११४७ ई०) से प्रकट है कि एक सेनापति शैव, वैष्णव, बौद्ध एवं जैन नामक चारों सम्प्रदायों का उद्धारक था (चतुस्समयसमुद्धरणम्)। (१५) श्रावस्ती (आधुनिक सहेत-महेत) से प्राप्त एक शिलालेख से प्रकट होता है कि वास्तव्य कुल के विद्याधर नामक एक व्यक्ति ने बौद्ध श्रमणों के लिए एक मठ उसी बस्ती (जहाँ शिलालेख प्राप्त हुआ था) में बनवाया (इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द १७, पृ० ६१)। (१६) तंजौर के सेवप्प नायक के कुम्भकोणम् नामक शिलालेख (१५८० ई०) से पता चलता है कि तिरुमलियराजपुरम् के ब्राह्मण-ग्राम ('अग्रहार') में कुछ भूमि का दान, तिरुविलदुर के बुद्ध-मन्दिर से सम्बन्धित एक व्यक्ति को दिया गया था। उपर्युक्त उदाहरण यह व्यक्त करते हैं कि भारत के सभी भागों, उत्तर से दक्षिण तक में, राजाओं के एवं उनके कर्मचारियों के मध्य धार्मिक सहिष्णुता एवं सभी धर्मों की सुरक्षा करना यह एक सामान्य नियम-सा था। यदि कहीं कोई अपवाद था तो वह किसी व्यक्ति-विशेष, राजा या कर्मचारी या उसके समान किसी व्यक्ति तक ही सीमित था। दूसरी ओर, यद्यपि अशोक, जो प्रजा के अन्य धर्मों के प्रति आदर-सम्मान प्रकट करने में प्राचीन भारतीय सहिष्णुता का उत्तराधिकारी था, और जिसके ७ वें एवं १२ वें प्रस्तर-लेख सहिष्णुता का उज्ज्वलतम उदाहरण या प्रतीक थे, आगे चल कर वही यह कहने में सन्तोष प्रकट करने लगा कि जम्बूद्वीप के देव लोग झूठे (अमान्य)पड़ गये और वह गर्व के साथ घोषित करने लगा कि यह परिणाम 'मेरी महत्ता का प्रभाव नहीं, प्रत्युत मेरे उत्साह का है।' यह द्रष्टव्य है कि अशोक की अहिंसा भी आरम्भ में पूर्ण नहीं थी, प्रत्युत सीमित थी। अपने प्रथम प्रस्तर-लेख में उसने कहा है कि राजा की रसोई में पहले सहस्रों पशु मारे जाते थे, अब यह हत्या प्रति दिन दो मोरों एवं एक १३. श्रीचन्द की तिथि के विषय में मतभेद है। देखिए डा० आर० सी० मजूमदार कृत 'हिस्ट्री आव बंगाल' (जिल्द १, पृ० १९६), जहाँ श्रीचन्द की तिथि कुछ विद्वानों द्वारा ११ वीं शती के आरम्भ में रखी गयी है। १४, अन्तिम दो उदाहरणों से प्रकट होता है कि यद्यपि कन्नौज के राजा जयचन्द हरा दिये गये थे और कन्नौज पर मुसलमानों का अधिकार सन् ११९३ ई० में हो चुका था, तथापि बौद्ध धर्म १३ वीं शती के प्रथम चरण में उत्तरी भारत से पूर्णतया विलीन नहीं हुआ था और बौद्ध धर्म के कुछ अवशेष दक्षिण में १६ वीं शती तक विद्यमान थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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