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________________ प्राचीन भारत में सर्व-धर्मसमभाव और अशोक हिरन तक सीमित हो गयी है (वह भी कभी-कभी,) और ये तीन पशु भी भविष्य में नहीं मारे जायेंगे (कास इस्क्रिप्शनम् इण्डिकेरम्, जिल्द १, पृ० १-२) । यह अन्तिम प्रण कार्यरूप में परिणत हुआ कि नहीं, कोई नहीं जानता। इसके अतिरिक्त, अशोक ने सभी प्रकार के प्राणियों की रक्षा करने की उत्सुकता को बहुत अधिक बढ़ावा दे डाला और एक अधिनायक की भांति मनुष्य-स्वभाव के विरोध में अपनी राजशक्ति का प्रयोग किया। दिल्ली-टोपरा स्तम्भ के चौथे लेख में अशोक ने उल्लेख किया है कि उसके लजूक नामक कर-व्यवस्थाधिकारियों का हजारों मनुष्यों से पाला पड़ता था और उन्हें दण्ड देने, यहाँ तक कि प्राण-दण्ड देने तक का अधिकार था और उसमें तीन दिनों की छूट की चर्चा है, जिसमें प्राण-दण्ड पाने वालों के सम्बन्धियों को इसका अवसर प्राप्त हो सके कि वे लजूकों से दण्ड-व्याक्षेप या क्षमा की मांग कर सकें। पांचवें दिल्ली-टोपरा स्तम्भ-लेख (का० इं० इण्डि०, जिल्द १, पृ० १२५-१२८) में राज्याभिषेक के २६ वें वर्ष के उपरान्त अशोक ने घोषित किया है कि २३ प्रकार के पक्षी एवं अन्य पशु (यथा तोता, मैना, लाल या जंगली हंस अर्थात् चक्रवाक या श्वेत हंस, पण्डूक, कुछ विशिष्ट मछलियाँ एवं कछुवे) बिल्कुल नहीं मारे जायेंगे, भेड़ एवं शूकरी, जो अभी छोटी हैं या दूध देने वाली हैं या इनके बच्चे अभी ६ मास से कम अवस्था के हैं वे भी नहीं मारी जायेंगी। उसने कुछ पूर्णिमाओं को एवं उनके एक दिन पूर्व एवं उपरान्त मछली बेचना, अष्टमी, चतुर्दशी एवं अमावस्या पर बैलों, भेड़ों एवं घोड़ों को बधिया करना तथा पुष्य, पुनर्वसु एवं चतुर्मासियों में घोड़ों एवं बैलों पर तप्त लोहे के चिह्न या दाग लगाना बन्द करा दिया। इन उपर्युक्त आदेशों से निर्धन लोगों पर बुरा प्रभाव अवश्य पड़ा होगा, और ये नियम लोगों को अवश्य कठोर लगे होंगे, विशेषतः जब इनके विषय में लजूकों को सभी प्रकार के अधिकार थे। जीवन के पश्चात्कालीन भाग में, ऐसा लगता है, अशोक ने हिन्दू देवों की पूजा का विनाश चाहा था। रूपनाथ प्रस्तर-लेख (इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द ६, पृ० १५४-१५६) में ऐसा आया है कि वह कुछ वर्षों तक उपासक मात्र (केवल बुद्ध की पूजा करने वाला) था, किन्तु अभी आस्थावान् नहीं हो सका था, किन्तु एक वर्ष या अधिक काल से (आस्थावान् हो गया) और उस अवधि में वे देव, जो जम्बूद्वीप (भारत) में सच्चे कहे जाते थे, झूठे पड़ गये और यह उसकी आस्था (उत्साह, प्रयत्न आदि) का परिणाम था। इससे यह अर्थ निकाला १५. यहाँ पर ब्रह्मगिरि, रूपनाथ एवं अन्य छः स्थानों पर पाये गये प्रस्तर-लेखों के महत्त्वपूर्ण शब्द उद्धृत हुए है (कुछ भाषान्तर हैं और कहीं-कहीं कुछ छूट भी गया है)। यहाँ प्रो० जूल्स ब्लोच ('लेस इंस्क्रिप्शंस डो' अशोक,पेरिस, १९५०, पृ० १४५-१४८) द्वारा उपस्थापित मूल दिया जा रहा है--'देवानं पिये हेवमाह। सातिरेकानि मडतियामिक (स्सानि) य सुमि. पाकासके (उपासके ?) नो चु बाढि पक्कते (पक्कन्ते)। सातिलेके चु छपन्छरे य सुमि हक संघ (संधे) उपते बाढि पक्कन्ते। या इमाय कालाय जम्बुदिपस्सि अमिस्सा देवा हुस ते दानि मिस्सा कटा। पक्कमस्स हि एस फले।नोच एसा महत्तता पापोतवें । खुद्दकेन पि पक्कमिनेन सकिये पिपुले पि स्वग्गे आरोवेवे (शेष छूट गया है। इस अनुशासन की एरंगुडी प्रतिलिपि यों है-'इमिना चुः कालेन अमिस्सा मुनिस्सा देवहिते पानि मिस्मिभूता।' आस-पास के दो अन्य भाषान्तर यों हैं-'इमिना चु कालेन अमिस्सा समाना मुनिस्ता जम्बुदीपस्सि मिस्सा देवेहि।' इनमें कहीं-कहीं छूट पड़ गयी है और त्रुटियां भी हैं और अर्थ प्रकट नहीं हो पाता। सम्भवतः इन अन्तिम शब्दों का वाक्य यों अनूदित हो सकता है-'उस काल के अन्तर में जो मनुष्य सत्यये (या यदि हम अमिस्सा' को 'अमिश्रा के रूप में लें, जो देवों से मिश्रित नहीं हो सके थे') वे झूठे पड़ गये, (या 'देवों से मिश्रित हो गये')। 'पक्कमस' से आगे के शब्दों का अर्थ यों है--'यह उपक्रम (उत्साह) का फल है। यह महत्ता से (उससे जो महत्त्वपूर्ण स्थिति वाला हो) नहीं प्राप्त हो सकता; क्षुद्र व्यक्ति द्वारा भी उपक्रम से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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