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________________ प्राचीन भारत में धर्मनिरपेक्षता और सह-अस्तित्व यूरोपीय धार्मिकता सदैव असहिष्णु रही है, और जब कभी यह असहिष्णु नहीं रहीं है, तो यह मानसिक विरोध (ईर्ष्या) या सम्पूर्ण उदासीनता के तुल्य ही रही है। भारतीयों में अधिकांश धार्मिक व्यक्ति सदैव अतीत में ऐसा मानते रहे हैं और आज भी ऐसा स्वीकार करते हैं कि जीवन के रहस्य एवं आत्मा की मुक्ति के विषय में बहुत-से वैकल्पिक मार्ग हो सकते हैं। भारतीय लोग उन कतिपय लाखों लोगों के इस कमन पर कि उनके द्वारा सम्मानित पैगम्बर को ही भगवान और परलोक की ज्ञान-प्राप्ति का एकाधिकार प्राप्त है, बाल-साहस मानकर उपेक्षा के साथ मुसकराते रहे हैं। यहाँ अन्य विरोधी सिद्धान्तों एवं सम्प्रदायों के प्रति ऐसी सहिष्णुता सदैव विराजमान रही है। अशोक के पहले कई शतियों पूर्व से लेकर १३०० ई० तक, जब कि मुसलमानों ने भारत को तहस-नहस करना आरम्भ कर दिया, इसके कदाचित् ही विरल अपवाद पाये गये हों। कुछ थोड़े-से उदाहरण (प्राचीन एवं पश्चात्कालीन. दोनों) यहाँ दिये जाते हैं (१) खारवेल ने, जो कलिंग का जैन राजा था, अपने राज्यकाल के नवें वर्ष में ब्राह्मणों को कर-मुक्त कर दिया (ईसा पूर्व द्वितीय या प्रथम शती, देखिए एपि० इण्डि०, जिल्द २०, पृ०७९ एवं ८८); (२) नासिक गुफा-लेख (संख्या-१०) में आया है कि क्षहरात वंश के क्षत्रप नहपान के दामाद उपवदात ने पवित्र नदियों के तटों पर तथा भरुकच्छ (भडोच), दशपुर एवं गोवर्धन (नासिक) के देवों एवं ब्राह्मणों को बहुत दान दिये तथा बौद्ध संघ के भोजन के लिये भूमि-खण्ड दान किया; (३) गुप्त सम्राट सामान्यतः विष्णु के भक्त थे, किन्तु उन्होंने भी बौद्धों को दान दिये, यथा-गुप्त लेख सं० ५ (गुप्त इंस्क्रिप्शंस, फ्लीट, पृ० ३१-३४) में आया है कि आम्रकार्दव (चन्द्रगुप्त द्वितीय के एक राज्य कर्मचारी) ने आर्यसंघ को गुप्त संवत् के ९३ वें वर्ष (४१२-१३ ई०) में विशेष दान दिया; (४) आन्ध्रदेश में श्रीपर्वत के इक्ष्वाकु राजा सिरि चान्तमूल ने अग्निष्टोम, वाजपेय एवं अश्वमेध यज्ञ किये, किन्तु उसके कुल की स्त्रियों में अधिकांश बौद्ध थीं, जिनमें एक ने परम बुद्ध के सम्मान में एक स्तम्भ बनवाया (एपि० इण्डि०, जिल्द २०, पृ०८ एवं जायसवाल की 'हिस्ट्री आव इण्डिया', ५० से ३५० ई०, पृ० १७५); (५) वलभी (काठियावाड़) के मैत्रक राजाओं में सभी महेश्वर (शिव) के पूजक थे; बम्बई यूनि० के जर्नल (जिल्द ३, पृ०७४-९१) में इनके पांच दानपत्रों का उल्लेख किया गया है जिनमें चार बौद्धों के लिए तथा एक ब्राह्मण के लिए हैं। इनमें प्रथम गारुलक महाराज वराहदास नामक सामन्त द्वारा वलभी के २३० वें वर्ष (५४९ ई०) में दिया गया और अन्य स्वयं वलभी-राजाओं द्वारा । बौद्धों को दिये गये चारों दान यक्षशूर-विहार एवं पूर्णभट्ट-विहार (दोनों भिक्षुकियों के मठ थे) को दिये गये भूमि-खण्डों एवं ग्रामों से सम्बन्धित हैं, जिनसे भिक्षुकियों को वस्त्र, अन्न, बिस्तर, आसन, दवा आदि तथा बौद्ध प्रतिमाओं के लिए धूप, पुष्प, चन्दन आदि की व्यवस्था की जा सके। (६) उड़ीसा के राजा ने, जिसका नाम शुभाकरदेव था, जो बौद्ध राजा का पुत्र था और अपने को परमसौगत कहा करता था, आठवीं शती के उत्तरार्ध में विभिन्न गोत्रों वाले सो ब्राह्मणों को दो ग्रामों का दान किया (एपि० इण्डि०, जिल्द १५, पु० ३-५, नेउलपुर दान); (७) बंगाल के राजा विग्रहपाल ने, जो बौद्ध पालवंश का था, अपने राज्य-काल के १२वें वर्ष में चन्द्र ग्रहण के अवसर पर बुद्धके सम्मान में गंगा-स्नान करके (भगवन्तं बुद्धमट्टारकमुद्दिश्य) एक सामवेदी ब्राह्मण को दान दिया (अंगच्छी दान-पत्र, एपि० इण्डि०, जिल्द १५, पृ० २९३, लगभग १००० ई०); (८) विग्रहपाल के उत्तराधिकारी महीपाल ने विषुव-संक्रान्ति पर गंगा में स्नान करके बुद्ध के सम्मान में एक ब्राह्मण को एक ग्राम दान में दिया (एपि० इण्डि०, जिल्द १४, पृ० ३२४); और देखिए इण्डियन ऐण्टीक्वेरी (जिल्द २१, पृ० २५३-२५८) जहाँ बंगाल के बौद्ध राजा देवपालदेव द्वारा ९वीं शती के अन्त में एक विद्वान् ब्राह्मण को एक ग्राम दिये जाने की चर्चा है। (९) कसिया से प्राप्त कलचुरि प्रस्तराभिलेख (एपि० इण्डि०, जिल्द १८, पृ० १२८) में गद्य में प्रथम आवाहन रुद्र का और उसके उपरान्त बुद्ध का हुआ है। प्रथम दो श्लोक शंकर की स्तुति में हैं, तीसरा तारा (बौद्ध देवी) की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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