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धर्मशास्त्र का इतिहास
यह अवलोकनीय है कि याज्ञवल्क्य जैसे स्मृतिकारों ने ऐसी व्यवस्था दी है कि जब कोई राजा किसी अन्य देश पर अधिकार कर ले, तो उसका यह कर्तव्य होता है कि वह विजित देश के आचार, व्यवहार एवं कुल स्थिति का सम्मान करे । अशोक स्वयं बुद्ध - शिक्षाओं का अनुयायी था, किन्तु उसने यह आज्ञापित किया है कि सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों के प्रति सम्मान प्रकट किया जाय और उसने स्वयं ऐसा ही किया था ( १२ वाँ प्रस्तर लेख ) - 'न तो अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और न अन्य सम्प्रदायों की अवमानना होनी चाहिए', 'अन्य सम्प्रदायों का सम्मान प्रत्येक रूप में होना चाहिए', 'केवल समवाय श्लाघ्य है, अर्थात् लोगों को एक-दूसरे के धर्म को सुनना एवं सम्मान करना चाहिए ।"" सातवें स्तम्भ (दिल्ली - टोपरा, पृ० १३६ ) में अशोक ने घोषित किया है कि मैंने महामात्र नामक अधिकारियों की नियुक्ति की है, जो संघ ( शिक्षा या उपदेश करने वाले भिक्षुओं का समुदाय), ब्राह्मणों, आजीवकों, निग्गन्थों एवं अन्य सभी पासण्डों ( पाषण्डों या पाखण्डियों) की सुरक्षा व्यवस्था देखेंगे। सहस्रों वर्षों तक भारत एक ऐसा देश रहा है जहाँ पूर्णरूपेण सहिष्णुता बरती गयी है, जो शाब्दिक अर्थ में स्वयं एक धर्म है । किन्तु
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यदि इसमें उसे सफलता प्राप्त हो गयी तो जैनों को अपने धर्म एवं परमात्मा का त्याग करना पड़ेगा । एकान्तद राम सफल हो गया, किन्तु जैनों ने जिनदेव की प्रतिमा को त्यागना अस्वीकार किया, जिस पर एकान्तद ने जैनों द्वारा भेजे गये घोड़ों एवं रक्षकों को हरा कर भगा दिया, जिन-मन्दिर तोड़ दिया और वहीं एक बड़ा शिव मन्दिर बनवा दिया। जैनों ने राजा बिज्जल से शिकायत की, जिन्होंने राम को बुला भेजा और उससे पूरी बातें जाननी चाहीं । राम ने लिखित प्रमाण उपस्थित कर दिया और पुनः वैसी हो शर्त बदी, जिसे जैन मानने को तैयार नहीं हुए। बिज्जल ने जैनों से अपने पड़ोसियों के साथ शान्तिपूर्वक रहने को कहा, एक जयपत्र ( राम की सफलता का प्रमाण-पत्र ) दिया और सोमनाथ के मन्दिर के लिए एक ग्राम दान में दिया । यह स्पष्ट है कि राम द्वारा जैनप्रतिमा हटायी गयी और उसके स्थान पर शिव-प्रतिमा रखी गयी (यहाँ अलौकिक बातों पर विचार नहीं किया जा रहा है। राम को हम ११६२ ई० के कुछ ही पूर्व रख सकते हैं। स्थानीय झगड़ों में, जैसा कि उपर्युक्त लेख से व्यक्त है, तथा किसी जन-समुदाय या राजा की सम्पूर्ण नाश अथवा उत्पीडन सम्बन्धी सामान्य नीति में बड़ा अन्तर होता है।
१२. देखिए 'इंस्क्रिप्शंस आव अशोक' (जा० हुल्श द्वारा सम्पादित, १९२५, ०२०-२१, जहाँ पर गिरनार का प्रस्तर लेख अनुवादित है) । डा० मीनाक्षी अपने ग्रन्थ 'एडमिनिस्ट्रेशन एण्ड सोशल लाइफ अण्डर दि पल्लवज' ( मद्रास यूनि०, १९३८, पृ० १७०-१७२ ) में यह कहने के उपरान्त कि पल्लव राजा लोग अन्य धार्मिक सम्प्रदायों के प्रति सहिष्णु थे, इस बात की ओर संकेत करते हैं कि पल्लवमल्ल राजा ने कुछ कठोर ढंगों एवं उत्पीडन का सहारा लिया था । प्रो० आनर्ल्ड टायन्बी ने 'ईस्ट एवं वेस्ट' (आक्सफोर्ड यूनि० प्र०) ने निर्देश किया है कि ईसाई धर्म एवं मुस्लिम धर्म ने 'जीओ एवं जीने दो' के सिद्धान्त का अनुशीलन कदाचित् ही किया है और दोनों विश्वइतिहास को अपमानित करने वाले महाभयंकर द्वन्द्वों, क्रूरतम निर्दयताओं एवं दुष्कर्मों के उत्तरदायी हैं ( पृ० ४९ ) । इसी प्रकार वी० ओ० वोग्ट ने अपने ग्रन्थ 'कल्ट एण्ड कल्चर' में मुसलमानों एवं ईसाई धर्मदूतों के उस अडिग एवं अटल औद्धत्यपूर्ण अहंकार की भर्त्सना की है जिसके द्वारा वे अपने धार्मिक सिद्धान्त को परमात्मा द्वारा प्राप्त प्रमाण मानते हैं; उन्होंने शोक के साथ यह व्यक्त किया है कि धर्म यदि अपनी उत्प्रेरणा-सम्बन्धी धारणा से अतीत एवं भविष्य को आलिंगन-सूत्र में बाँधने की प्रक्रिया में सार्वजनीनता नहीं प्रकट करता ( पृ० ७०), तो वह नाश को प्राप्त हो जायगा
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