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________________ निराधार या काल्पनिक आरोप ४९५ के अनुयायी एक सहस्र वर्षों तक लगातार शान्तिपूर्वक एक-दूसरे के साथ रहते चले आये हैं और यह सह-अस्तित्व अशोक के काल से लेकर आगे तक की भारतीय जनता की विशेषताओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है।' इससे प्रकट होता है कि भारत में धार्मिक उत्पीडन नहीं हुआ और पाश्चात्य धार्मिक उत्पीडन की गाथाओं की आवृत्ति यहाँ नहीं हो सकी। डा० आर० सी० मित्र ने भी अपनी पुस्तक 'डिक्लाइन आव बुद्धिज्म इन इण्डिया' (पृ० १२५-१३०) में उत्पीडन-सम्बन्धी गाथाओं के विषय में ऐसा ही निष्कर्ष उपस्थित किया है। बार्थ ने अपनी पुस्तक 'रिलिजंस आव इण्डिया' (पृ० १३६) में यह माना है कि सभी बातें यही सिद्ध करती हैं कि बौद्ध धर्म अवसाद के कारण क्षय को प्राप्त हुआ और हमें इसके अपने दोषों में ही इसके विलीन होने के कारण ढूंढ़ने चाहिए। उन्होंने अपने कथन को इस प्रकार पुष्ट किया है--'सिक्के एवं शिलालेख तथा अत्यन्त विश्वास करने योग्य प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि शासन-सम्बन्धी शक्तियाँ विशेष रूप से सहिष्णु एवं उदार थीं' (पृ० १३३), और वे इसकी पुष्टि में उदाहरण भी देते हैं।" रामेश्वर के लिए प्रारम्भ की तो उनके साथ राजा सुधन्वा भी गया। माधवाचार्य अपने नायक की गरिमा बढ़ाने के उत्साह में गाथा-पर-गाथा जोड़ते जाते हैं और इतिहास एवं काल-क्रम को हवा में उछाल देते हैं, अर्थात् वे इतिहास एवं काल से सम्बन्धित क्रमों को तोड़ देते हैं। उदाहरणार्थ, उन्होंने वर्णन किया है कि आचार्य अभिनवगुप्त (जो एक महान् शैव एवं तान्त्रिक आचार्य थे) शंकर द्वारा शास्त्रार्थ में (१५।१५८) हरा दिये गये और यह भी लिखा है कि अभिनवगुप्त ने महान आचार्य के विरोध में मारण का प्रयोग किया था। अभिनवगुप्त की कृतियों से स्वयं प्रकट है कि उनके साहित्यिक कर्म ९८० एवं १०२० ई० के मध्य में सम्पादित हुए थे (देखिए प्रस्तुत लेखक का अन्य हिस्ट्री आव संस्कृत पोइटिक्स', १९५१, पृ.० २३१-२३२), किन्तु शंकराचार्य को कोई भी विद्वान् ८०० ई० के उपरान्त का नहीं मानता। माधवाचार्य ने (१५।१५७) यह भी कहा है कि शंकराचार्य ने 'खण्डनखण्डखाद्य' के लेखक श्रीहर्ष को भी, जिन्हें गुरु, भट्ट एवं उदयन नहीं हरा सके थे, अपने तर्कों से हराया। श्रीहर्ष १२ वीं शती के अन्त में हुए थे। तारानाथ ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री आव बुद्धिज्म' में लिखा है कि सम्भवतः इसी समय बौद्धों के प्रबल शत्र शंकराचार्य एवं उनके शिष्य भट्टाचार्य प्रकट हुए, जिनमें प्रथम (शंकराचार्य) बंगाल में एवं दूसरे (भट्टाचार्य) उड़ीसा में। उसके थोड़े समय के उपरान्त बौद्ध लोग दक्षिण में कुमारलील एवं कणादहरु द्वारा उत्पीडित हुए। यहाँ बौट राजा शालिवाहन का उल्लेख है, यद्यपि बौद्धों का कथन है कि कुमारलील, शंकराचार्य या भट्टाचार्य आदि के शास्त्रार्थ के अन्त में धर्मकीति की विजय हई (इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द ४,५०३६५)। यह प्रकट है कि उक्त वृत्तान्त सर्वया भ्रामक है। देखिए डा०मित्र कृत 'डिक्लाइन आव बुद्धिज्म',५०१२९ । ११. यस्मिन्देशे य आचारो व्यवहारः कुलस्थितिः। तथैव परिपाल्योऽसौ यदा वशमुपागतः॥ धार्मिक उत्पीडन एवं तोड़-फोड़ के कुछेक उबाहरणों के सम्पूर्ण अस्वीकार से कुछ प्राप्ति नहीं होती। किन्तु ऐसे उदाहरण बहुत ही थोड़े हैं और उनकी अल्पता इस बात को बल देती है और प्रमाणित करती है कि दो सहन वर्षों से अधिक काल तक भारतीय जनता में महान् धार्मिक सहिष्णुता विराजमान थी। ऐन्लूर से प्राप्त एक शिलालेख (एपि० इण्डि०, जिल्द ५, पृ० २१३, २४३) से एक मनोरंजक उदाहरण की प्राप्ति होती है, जहाँ एकान्तद राम नामक एक कट्टर शैव की गाथा वर्णित है। शिव के कट्टर भक्त एकान्तव राम ने हुलिगर (लक्ष्मेश्वर) के जैनों के साथ, जिनके मुखिया संकगौडा थे, एक शर्त बदी और ताड़पत्र पर लिखकर दाव लगाया कि वह अपना सिर काट कर हुलिगर में सोमनाथ के चरणों पर रख देगा और सात दिनों के उपरान्त अपने सिर को पुनः प्राप्त कर लेगा। Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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