________________
४९४
धर्मशास्त्र का इतिहास उत्पीडक कहा है और लिखा है कि उसने गन्धार में बौद्ध स्तूपों को गिरा दिया, उसने मठों एवं सैकड़ों बौद्धों को मार डाला (देखिए ‘इन दि फूटस्टेप्स आव बुद्ध,' रेने ग्रोस्सेट द्वारा लिखित, पृ० ११९-१२०); युवाँ च्वाँग ने लिखा है कि राजा शशांक ने बोधिवृक्ष का उच्छेद कर दिया, बुद्ध-प्रतिमा के स्थान पर महेश्वर की प्रतिमा रख दी तथा बद्ध के धर्म का नाश किया (देखिए बील की पुस्तक 'बुद्धिस्ट रेकर्ड्स आव दि वेस्टर्न वर्ल्ड,' जिल्द २, पृ० ११८, १२२ एवं वाटर्स की पुस्तक 'युवाँ च्वाँग्स ट्रैवेल्स', जिल्द २, पृ० ११५-११६); कुमारिल के कहने पर राजा सुधन्वा ने एक अनुशासन निकाला कि हिमालय से लेकर कुमारी-अन्तरीप तक (जो सर्वथा असंगत है) अपने उस नौकर को, जो बौद्धों की हत्या नहीं करेगा, मार डालूंगा।
ये उदाहरण प्रसिद्ध विद्वान् राइज़ डेविड्स द्वारा पालि टेक्स्ट्स सोसाइटी के जर्नल (१८९६, पृ० ८७-९२) में परीक्षा की कसौटी पर जाँचे गये हैं। उन्होंने यह कहकर कि पालि पिटकों में कहीं भी उत्पीडन की चर्चा नहीं हुई है, पालि ग्रन्थों का स्वर ब्राह्मणों की प्रशंसा से युक्त है, कहीं भी किसी प्रकार के धार्मिक उत्पीडन अथवा घात या व्यक्तियों के विनाश की कथा उल्लिखित नहीं है; बलपूर्वक घोषणा की है कि वे इन गाथाओं में विश्वास नहीं करते। किन्तु साथ ही यह भी कहा है कि मैं पुष्यमित्र से सम्बन्धित किंवदन्ती को सर्वथा झूठ मानने को सन्नद्ध नहीं हूँ (किन्तु 'अवदान' का लेखक पूरी जानकारी नहीं रखता था और जो वचन आयें हैं वे अशुद्ध हैं, अतः ऐसा निर्णय अभी नहीं दिया जाना चाहिए)। वे सुधन्वा एवं कुमारिल की गाथा को सभी उत्पीडन-सम्बन्धी गाथाओं में सबसे आधारहीन मानते हैं और कहते हैं कि वह केवल अत्युक्तिपूर्ण दर्प मात्र है। राइज़ डेविड्स का कथन है-'दोनों विरोधी धर्मों
९. देखिए राइज डेविड्स कृत 'बुद्धिस्ट इण्डिया', पृ० ३१८-३२० (५वौं संस्करण, १९१७, प्रथम संस्करण १९०३ ई० में प्रकाशित) जहां उत्पीडन के विषय में दिया हुआ है, और देखिए देवमित्त धामपाल कृत 'लाइफ एण्ड टीचिंग आव बुद्ध' (पृ०७) जहाँ ऐसा उल्लिखित है कि कुमारिल एवं शंकर ने केवल विवादात्मक युद्ध किया था। कुमारिल के तन्त्रवातिक में भी ऐसा आया है कि बौद्ध लोग नोमांसकों से विवादात्मक युद्ध (शास्त्रार्थ) करने से डरते हैं, और वे जहाँ एक ओर यह कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु क्षणिक है वहीं वे मूर्खतापूर्वक यह गर्व से कहते हैं कि उनके पवित्र ग्रन्थ अमर हैं और इस प्रकार वे वेद के सिद्धान्तों से ऋण लेते हैं--'यथा मोमांसकत्रस्ताः शाक्यवैशेषिकादयः । नित्य एवागमोऽस्माकमित्याहुः शून्यचेतनम् ॥' पृ० २३५; 'तत्र शाक्यः प्रसिद्धापि सर्वक्षणिकवादिता। त्यज्यते वेदसिद्धान्ताज्जल्पभिनित्यमागमम् ॥' पृ० २३६ । देखिए तन्त्रवार्तिक, पृ० ३७६-३७७ जिससे प्रकट होता है कि कुमारिल बुद्ध को शिक्षा की उपयोगिता को किसी सीमा तक मानने को सन्नद्ध थे। अन्य ग्रन्थ भी यही प्रकट करते हैं कि यह केवल विवादात्मक युद्ध (शास्त्रार्थ) मात्र था, यथा----सुबन्धु (छठी शतो) की वासवदत्ता नाट्य-पुस्तक में आया है--'केचिज्जैमिनिमतानुसारिण इव तथागतपतध्वंसिनः', पृ० १४४ साल का संस्करण)।
१०. माधवाचार्य के शंकरदिग्विजय (११५६ एवं ५९) में ऐसा वर्णित है कि राजा सुधन्वा इन्द्र का अवतार था और कुमारिल स्कन्द (जिन्हें कुमार भी कहा जाता है) के अवतार थे। उस ग्रन्थ में सुधन्वा की आज्ञा इस प्रकार है--'व्यपादाज्ञां ततो राजा वधाय श्रुतिविद्विषाम् । आ सेतोरा तुषाराद्रौद्धानावृद्धबालकम् । न हन्ति यः सहन्तव्यो भृत्यानित्यन्वशानृपः॥' (शंकरदिग्विजय ११९२-९३)। यह प्रत्यक्ष रूप से असंगतिपूर्ण गाथा है। प्राचीन भारत में किसी भी राजा ने, सुधन्वा की तो बात ही निराली है, हिमालय से लेकर रामेश्वर तक राज्य नहीं किया। आगे, यह भी द्रष्टव्य है कि वह आज्ञा जिसे प्रचारित रूप में हम मान भी लेते हैं, केवल राजा के भृत्यों को ही दी गयी, सब को नहीं। शंकरदिग्विजय (१५।१) में ऐसा उल्लिखित है कि जब शंकराचार्य ने अपनी दिग्विजय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org