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मतभेद के स्थूल आधार एवं बौद्ध धर्म के लोप के कारण
४९३ भी कोई व्याख्या नहीं उपस्थित की) की प्राप्ति। प्रारम्भिक सिद्धान्त (हीनयान) के अन्तर्गत ऐसा व्यक्त है कि सम्बोधि का अनुभव एवं निर्वाण मनुष्यों द्वारा इसी जीवन में प्राप्त किया जा सकता है, यदि वे बुद्ध के निर्धारित मार्ग का अनुसरण करें। अस्तु, अब हम बौद्ध धर्म के लोप के उन कारणों को उपस्थित करेंगे जिन्हें विद्वानों ने समय-समय पर व्यक्त किया है।
(१) शासकीय उत्पीडन को कुछ विद्वानों ने मुख्य कारणों में एक कारण माना है। शुंग वंश के पुष्यमित्र ने, ऐसा अभियोग लगाया गया है, ऐसी उद्घोषणा की थी कि जो कोई किसी श्रमण का सिर लायेगा वह एक सौ दीनार पायेगा; कश्मीर के राजा मिहिरकुल को युवा च्वाँग (अथवा न-सांग, जैसा कुछ विद्वान् लिखते हैं) ने
७. 'निर्वाण' का शाब्दिक अर्थ है 'बुझा हुआ' या 'ठण्डा हो जाना।' बुद्ध की शिक्षा को ध्यान में रखकर यदि इसका अर्थ लगाया जाय तो कहा जा सकता है-काम (विषय या कामना) की अग्नि, कोष एवं मोह का बुमना, और इनका नैतिक शुचिता, दया-दाक्षिण्य एवं ज्ञान के रूप में परिवर्तित हो जाना। यह बाइबिल वाले स्वर्ग का द्योतक नहीं है। यह सम्यक् सम्बोधि, शान्ति एवं सुख की उस स्थिति का घोतक है, जो केवल मृत्यु के बाद ही नहीं, प्रत्युत इसी जीवन में और इसी पृथिवी पर प्राप्त की जा सकती है। यह वास्तव में वर्णनातीत है, जैसा कि पालि उदान (८) में कथित है-'अव्यक्त, अजन्मा, निराकार आदि' और ब्रह्म के लिए प्रयुक्त 'नेति नेति' (बृ. उप० २॥३॥६, ४।२।४, ४।४।२१, ४।५।१५) से मिलता-जुलता है।
८. अशोकावदान (सं० ३९) के शब्द (दिव्यावदान, कोवेल एवं मील द्वारा सम्पादित, कैम्ब्रिज, १८८६, १०४३४) 'यावत् पुष्यमित्रो यावत्संघारामं भिखूश्च प्रघातयन् प्रस्थितः। स यावच्छाकलमनुप्राप्तः। तेनाभिहितम् । यो मे श्रमणशिरो वास्यति तस्याहं दीनारशतं दास्यामि।... यदा पुष्यमित्रो राजा प्रघातितस्तदा मौर्यवंशः समुच्छिन्नः।' अधिकांश में लोगों ने पुष्यमित्र को शुंग कहा है एवं 'सेनानी' शब्द उपाधि रूप में पुराणों, हर्षचरित (६) एवं अयोध्या शिलालेख (एपि० इण्डि०, जिल्द २०, पृ०५४) में आया है, किन्तु उपर्युक्त अवदान ने उसे मौर्य कहा है। इससे प्रकट होता है कि या तो दिव्यावदान (जो पश्चात्कालीन कृति है) का लेखक इस विषय में शुद्ध ज्ञान नहीं रखता था या वह वचन त्रुटिपूर्ण या क्षेपक है। देखिए हिस्ट्री कांग्रेस को छठी बैठक (अलीगढ़ १९४३, पृ० १०९-११६) को प्रोसीडिंग्स्, जहाँ श्री एन्० एन० घोष ने यह सिद्धान्त घोषित किया है कि पुष्यमित्र ने बौद्धों को अवश्य उत्पीडित किया, किन्तु उसके उत्तराधिकारियों ने ऐसा नहीं किया। दूसरी ओर डा० राय चौधरी (पोलिटिकल हिस्ट्री आव इण्डिया, ५वा संस्करण) इस सिद्धान्त को नहीं मानते कि पुष्यमित्र बौद्धों का घातक या उत्पीडक था। आर्यमञ्जुश्रीमूलकल्प (त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सीरीज, भाग ३, ५३ वा अध्याय, पृ० ६१९-६२०) में भविष्यवाणी के रूप में ऐसा उल्लिखित है कि गोमिमुख्य (तथा गोमिषण्ड भी) नामक कोई राजा पूर्व भारत से कश्मीर तक अपने राज्य का विस्तार करता हुआ बुद्ध के शासन को तिरोहित कर देगा, विहारों का नाश करेगा तथा भिक्षुओं को मार डालेगा। काशीप्रसाद जायसवाल ने 'इम्पीरियल हिस्ट्री आव इण्डिया इन ए संस्कृत टेक्स्ट' (पृ० १९) में ऐसा विचार प्रकट किया है कि गोमिमुख्य पुष्यमित्र का प्रच्छन्न नाम है और जो बात उपर्युक्त उबृत है, वह ८०० ई० के लगभग लिखी गयी है और उसका तिब्बती अनुवाद सन् १०६० ई० में हुआ। देखिए रामप्रसाद चन्द का लेख 'पुष्यमित्र एण्ड दि शुंग एम्पायर' (इण्डियन हिस्टारिफल क्वार्टली, जिल्द ५, पृ० ३९३-४०७)और देखिए पृ० ३९७, जहां दिव्यावदान के अन्तिम वाक्यों का संप्रेजी में अनुवाद भी है तथा पृ० ५८७-६१३ तथा हरिकिशोर प्रसाद द्वारा लिखित लेख 'पुष्यमित्र शुंग एण्ड बुद्धिस्ट्स (जे० बी० आर० एस०, जिल्ब ४०, पृ० २९-३०)।
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