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________________ ४९२ धर्मशास्त्र का इतिहास प्रो० के० डब्लू० मार्गन जैसे कुछ हाल के लेखकों का कथन है कि बौद्ध धर्म के अपकर्ष के कारण थे संघ की शक्ति का ह्रास, मुस्लिम आक्रमण एवं हिन्दू जनता का विरोध (देखिए 'दि पाथ आव दि बुद्ध', पृ०५८)। श्री ए० कुमारस्वामी के इस कथन में पर्याप्त सत्यता प्रतीत होती है कि बौद्ध धर्म एवं ब्राह्मण धर्म का जितना गम्भीर अध्ययन किया जाय, उतना ही दोनों के बीच का अन्तर जानना कठिन हो जाता है, या यह कहना कठिन हो जाता है कि किन रूपों में बौद्ध धर्म, वास्तव में अशास्त्रीय या अहिन्दू है (देखिए उनका ग्रन्थ 'हिन्दूइज्म एण्ड बुद्धिज्म', पृ० ४५२)। बुद्ध एवं उनके उत्तराधिकारी अनुयायियों ने ब्राह्मण धर्म की कुछ लोक-प्रचलित मान्यताओं पर ही आक्रमण किया था। राइज़ डेविड्स महोदय ने अपने 'दि रिलेशंस बिटवीन अर्ली बुद्धिज्म एवं ब्राह्मणिज्म' (इण्डि० हिस्टा० क्वा०, जिल्द १०, पृ० २७४-२८६) नामक भाषण में यह प्रदर्शित करने का प्रयास किया है कि त्रिपिटकों से यह नहीं प्रकट होता कि उनका ब्राह्मणों से कोई विरोध था और बुद्ध ने वही कहा जो उन दिनों के ब्राह्मणवाद के प्रमुख तत्त्वों में विद्यमान था। बुद्ध ने उपनिषदों की उस शिक्षा को स्वीकार किया (या कम-से-कम उस शिक्षा से उनका कोई विवाद नहीं था) कि ब्रह्मानन्द एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए नैतिक आचरण अति उच्च होना चाहिए (बृ० उप० ४।४२३ 'तस्मादेवंविच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वा आत्मन्येवात्मानं पश्यति'; कठोपनिषद् १।२।२३, ११३, ८, ९, १३, १५; प्रश्नोपनिषद् १११५-१६ ; मुण्डकोपनिषद् १।२।१२-१३)। बुद्ध एवं तत्कालीन हिन्दू धार्मिक तथा दार्शनिक सिद्धान्तों के बीच उपस्थित मतभेदों के विषय थे जातिविभाजन, जाति-अभिमान, वेदों की एकमात्र प्रामाणिकता एवं यज्ञों के प्रति स्थापित महत्ता।' बुद्ध का कथन था कि सदाचार एवं ज्ञान सर्वोत्तम हैं, उन्होंने स्पष्ट रूप से ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया, प्रत्युत यह उद्घोषित किया कि इस विषय में निश्चितता प्राप्त कर लेना अनावश्यक है, और न उन्होंने कुछ प्रश्नों के विषय में अपने निश्चित दृष्टिकोण ही प्रकट किये, यथा यह विश्व नित्य है या अनित्य। क्योंकि उनके मतानुसार ऐसे प्रश्नों पर विचार-विमर्श करना 'सिद्धान्त-क्रिया की जटिलता या दुर्भेद्य संकुलता, शृंखला आदि उत्पन्न करना है . . .और न ऐसा करने से निवृत्ति, विराग, निरोध, उपशम (शान्ति), अभिज्ञान, सम्बोधि एवं निर्वाण की ही प्राप्ति हो पाती है। बुद्ध ने पूजा एवं प्रार्थना के विषय में अधिक नहीं सोचा-विचारा। उनके मतानुसार महत्त्वपूर्ण बात थी चिन्ता एवं दुःख से व्यक्ति का छूट जाना तथा निर्वाण (जिसकी स्थिति के विषय में उन्होंने स्पष्ट एवं सम्यक् रूप से कभी ५. अपनी पुस्तक 'रिलिजंस आव इण्डिया' (पृ० १२५-१२६) में बार्थ ने उस सिद्धान्त का उपहास किया है और उसे मात्र कल्पनात्मक कहा है जिसके आधार पर संघ-संख्या एवं आरम्भिक बौद्ध धर्म को जाति-प्रथा की प्रभुता एवं ब्राह्मणों के आध्यात्मिक प्रभुत्व के विरोध को प्रतिक्रिया कहा गया है। ६. देखिए मज्झिम-निकाय (चूल-मालुक्यसुत्त एवं अग्गि-वच्चगोतमुत्त), बी० कनेर द्वारा सम्पादित, जिल्व १, सुत्त ६३ एवं ७२, पृ० ४३१ एवं ४८६ 'न निम्बिदाय न विरागाय न निरोवाय न उपसमाय में अभिआय न सम्बोषाय न निम्बानाय संवत्तति।' ये ही शब्द दीन्वनिकाय के पोठ्ठपह-सुत्त में भी पाये जाते हैं जहाँ पोट्ठपद ने बुद्ध से पूछा है कि यह विश्व नित्य है या अनित्य, यह अनन्त है या सान्त, यह वेह एवं आत्मा भिन्न हैं या एक ? बुद्ध ने उत्तर दिया है कि हमने इन विषयों की व्याख्या इसलिए नहीं की है कि इनसे कोई उपयोग सिद्ध नहीं होता और न इनसे निर्वाण की प्राप्ति ही होती है (पालि टेक्ट्स सोसाइटी, जिल्व १, पृ० १८८-१८९)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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