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हिन्दू एवं बौद्ध धर्म का सहयोग
४९१ जो प्राचीन काल में हुए थे और सम्यक् सम्बुद्धि से परिपूर्ण थे। बुद्धदेव ने अपने को विलक्षण नहीं कहा है, प्रत्युत उन्होंने यही कहा कि मैं केवल सम्बुद्ध लोगों की पंक्ति में आ जाता हूँ और इस बात पर बल देकर वे कहते हैं कि जिन सद्गुणों की ओर मैं मनुष्यों का ध्यान आकृष्ट करता हूँ वे प्राचीन काल के हैं । धम्मपद एवं सुत्तनिपात (महावग्ग, वासेट्ठ सुत्त) में वास्तविक सद्गुणी को ब्राह्मण के समान कहा गया है-"मैं उसे ब्राह्मण कहता हूँ जो शरीर, वचन एवं विचार से किसी को दुःख नहीं देता, जो इन तीनों से संयत रहता है, अर्थात् जो अपने को इन तीनों से सुरक्षित रखता है"; "कोई व्यक्ति जटा रखने से, गोत्र से, जाति से ब्राह्मण नहीं होता, वह व्यक्ति जिसमें सत्य एवं धर्म विराजमान है, सुखी है और ब्राह्मण है"; "उस व्यक्ति को मैं ब्राह्मण कहता हूँ जो कामना (इच्छा या सुख) से नहीं लगा रहता और जल में कमलपत्र के समान है (जल में रहता कमलदल पानी को अपने ऊपर नहीं रखता) या आरे के ऊपर सरसों के दाने (जो उस आरे पर नहीं ठहरता) के समान है। इसके अतिरिक्त, ऐसा नहीं प्रतीत होता कि किसी काल में सम्पूर्ण भारत या इसके बड़े-बड़े भाग पूर्णतया बौद्ध हो गये थे। भारत के लोग एक प्रकार से सदैव हिन्दू थे। सभी कालों में लाखों लाख ऐसे भारतीय थे जो हिन्दू थे न कि बौद्ध। इतना ही नहीं, जब अशोक, कनिष्क एवं हर्ष जैसे राजाओं के आश्रय में बौद्ध धर्म पल रहा था, उन दिनों भी बौद्ध धर्म केवल मठों एवं पाठशालाओं तक सीमित था और लोगों में एक महती सहिष्णुता विद्यमान थी। उदाहरणार्थ, हर्ष के पिता सूर्य के उपासक थे और वह स्वयं शिव का भक्त था, उसका बड़ा माई राज्यवर्धन परमसौगत (बुद्ध का भक्त) था और हर्ष ने बौद्ध यात्री युवा च्वाँग (हन-सांग) के प्रति अनुग्रह प्रकट किया था।'
२. यस्स कायेन वाचाय मनसा नत्यि दुक्कतं । संवृत्तं तीहि ठानेहि तमहं बूमि ब्राह्मणम् ॥ न जटाहि न गोत्तेन न जच्चा होति ब्राह्मणो। यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुखी सोच ब्राह्मणो॥ वारि पोक्खरपतव आरग्गेरिव सासवो। यो न लिम्पति कामेसु तमहं ब्रूमि ब्राह्मणम् ॥धम्मपद (३९१, ३९३, ४०१, डा० पी० एल० वैद्य का संस्करण, देवनागरी लिपि में, १९३४); सुत्तनिपात (महावग्ग, वासेठ्ठसुत्त) में अन्तिम श्लोक आया है। 'न जटाहिं आदि से मिलाइए महाभारत के वनपर्व का श्लोक (२१६।१४-१५): 'यस्तु शूद्रो दमे सत्ये षर्मेच सततोत्थितः। तंबाह्मणमहं मन्ये वृत्तेन हि भवेद् द्विजः॥' 'वारि पोक्खरपत्तेव' आदि को मिलाइए छान्दोग्योपनिषद् (४।१४-३): 'यथा पुष्करपलाश आपो न श्लिष्यन्त एवमेवंविदि पापं कर्म न श्लिष्यत इति । एवं गीता (५।१०) 'लिप्यते न स पापेन पनपत्रमिवाम्भसा।
३. देखिए 'रिलिजंस आव ऐंश्येष्ट इण्डिया' (यूनिवसिटी आव लन्दन, १९५३), जिसके लेखक प्रो० रेनो ने पृ० १०० पर इसी प्रकार का विचार प्रकट किया है।
...४. देखिए बाँसखेड़ा पत्रक (६२८-२९ ई०), एपि० इण्डि, जिल्द ४, पृ०२१०-२११ तथा मधुवन पत्रक (६३१-३२ ई०), एपि० इण्डि०, जिल्द १, पृ०७२-७३ (बहलर) एवं एपि० इण्डि०, जिल्द ७, पृ० १५७-१५८ (कोलहान)। हन-सांग ने यह नहीं लिखा है कि राज्यवर्धन बुद्ध का भक्त था, किन्तु उसने है को आरम्भ से ही बौद्ध कहा है और एक काल्पनिक कहानी दी है कि किस प्रकार वह राजगद्दी पर बैठने से रोका गया और 'कुमार' को उपाधि धारण करने को एक ऐसे बोषिसत्व द्वारा प्रेरित किया गया जो पूजा के प्रभाव में आकर अलौकिक ढंग से प्रकट हो गया था। इससे यह प्रकट होता है कि बुद्ध से सम्बन्धित विवरणों को हमें बहुत सोच-समझ कर स्वीकार करना चाहिए। देखिए वाटर्स, 'हन-सांग्स ट्रेवल्स इन इण्डिया' (लन्दन, १९०४, जिल्व १, पृ० ३४२). जहाँ यह गापा वी हुई है।
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