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धर्मशास्त्र का इतिहास
प्रमुख धाराएँ प्रवाहित थीं, जिनमें एक थी देवों के लिए यज्ञ-कर्म के मार्ग से सम्बन्धित और दूसरी थी नैतिक प्रयास, आत्म-निग्रह एवं आध्यात्मिक लक्ष्य के मार्ग से सम्बन्धित । हमने गत अध्याय में यह देख लिया है कि उपनिषदों ने वेदों एवं उनके द्वारा व्यवस्थित अथवा उनमें पाये जाने वाले यज्ञों को हीन स्तर पर रखा है (वेदों को अपरा विद्या के अन्तर्गत कहा गया है) तथा उच्च नैतिक गुणों की सम्प्राप्ति के उपरान्त आध्यात्मिक ज्ञान को यज्ञों की अपेक्षा उच्च माना है । उपनिषदों ने पहले तो वैदिक यज्ञों को प्रतीकात्मक ढंग से व्याख्यायित करना चाहा है, यथा बृहदारण्यकोपनिषद् (१।१।१ ) में, जहाँ उषा, सूर्य एवं संवत्सर को यज्ञिय अश्व का क्रम से सिर, आँख एवं आत्मा कहा गया है, या छान्दोग्योपनिषद् (२।२1१-२ ) में जहाँ 'साम' के पाँच भागों को प्रतीकात्मक ढंग से पृथिवी, अग्नि, आकाश, सूर्य एवं स्वर्ग कहा गया है। इसके उपरान्त उपनिषदों ने वेद का केवल नाम लेना आरम्भ किया और उसे ब्रह्मविद्या से नीचे बहुत ही निम्न श्रेणी में रखा ( यथा - बृह० उप० ४/४/२१, ११४/१०, छा० उप० ७११-४, मुण्डक ० १।१।४-५) ।
इतना तो सभी संस्कृत विद्वान् सामान्यतः स्वीकार करते हैं कि कम-से-कम बृहदारण्यक एवं छान्दोग्य जैसी अत्यन्त प्राचीन उपनिषदें बुद्ध से बहुत पहले की हैं और उनमें बुद्ध या उनकी शिक्षाओं या पिटकों के विषय में कोई संकेत नहीं मिलता। दूसरी ओर, यद्यपि दर्जनों सुत्तों में ब्राह्मणों एवं बुद्ध की या बुद्ध के शिष्यों एवं धर्मदूतों की सभाओं की आख्याएँ मिलती हैं, किन्तु उन सभाओं में दोनों ओर की आपसी सद्भावनाएँ एवं मृदुताएँ स्पष्ट झलकती हैं। आरम्भिक पालि-ग्रन्थों या ब्राह्मण-ग्रन्थों में कहीं भी किसी प्रकार की एक-दूसरे के विरोध में कोई कटुता नहीं प्रदर्शित है, न तो उन पालि-ग्रन्थों में ब्राह्मणवाद के सिद्धान्तों की और न ब्राह्मण ग्रन्थों में बुद्ध क वैधता की भर्त्सना हुई है। इतना ही नहीं, इन सभी सभाओं एवं संवादों में उपनिषदों की ब्रह्म-सम्बन्धी केन्द्रीय धारणा की न तो बुद्धदेव ने और न आरम्भिक बौद्ध-प्रचारकों ने खिल्ली उड़ायी है । बुद्ध ने जो कुछ कहा है उसे हम नीचे संक्षेप में दे रहे हैं
'हे भिक्षुओ, यहाँ तक कि मैंने पूर्व काल के सम्यक् ज्ञानवान् लोगों द्वारा अनुसरित प्राचीन मार्ग को देखा है । और, हे भिक्षुओ, वह प्राचीन पथ, प्राचीन मार्ग, जो उन सम्यक् ज्ञानवान् लोगों द्वारा अनुसरित हुआ है, क्या है ? सर्वथा इसी अष्टांगिक मार्ग ( सम्यक् विचार आदि) की भाँति । हे भिक्षुओ, यह वही प्राचीन मार्ग है जो पूर्व काल में सम्यक् रीति से ज्ञान प्राप्त करने वाले व्यक्तियों द्वारा अनुसरित हुआ था । उसी मार्ग से मैं गया हूँ, और उसी मार्ग से चलता हुआ मैं जरा एवं मृत्यु के विषय में भली प्रकार ज्ञान प्राप्त कर सका हूँ । भली प्रकार जान लेने के उपरान्त मैंने इसे भिक्षुओं, भिक्षुकियों, उपासकों, पुरुषों एवं स्त्रियों से कहा है । यही ब्रह्मचर्य चारों ओर प्रसारित है, विस्तारित है, सब को ज्ञात है और सर्वप्रिय है तथा देवों एवं मनुष्यों द्वारा प्रकट किया गया है।" यह द्रष्टव्य है कि बुद्ध ने जिस अष्टांगिक मार्ग को दुःख दूर करने का सरल उपाय माना है उसे उन्होंने उन लोगों द्वारा अनुसरित माना है।
१. देखिए संयुत्तनिकाय (पालि टेक्स्ट सोसाइटी), भाग २ (निदानवग्ग ), एम० लेयान फीयर द्वारा सम्पादित ( पृ० १०६-१०७) । कुछ वाक्य यों हैं-- 'एवमेव स्वाहं भिक्खवे असं पुराणं मग्गं पुराणंजसं पुरुब केहि सम्माबुद्धेहि अनुयातं ॥ कतमो च सो भिक्लवे मग्गो पुराणंजसो . . • अनुयातो । अयमेव अट्ठगिको मग्गो । सेय्यथापि समादिट्ठि । अयं रवो भिक्खवे पुराणमग्गो अनुयातो। तं अनुगच्छं । तं अनुगच्छन्तो जरामरणं अभिज्ञाय चिक्खि भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं । तयिदं भिक्खवे ब्रह्मचरियं इद्धं चेव फीतं च वित्थारिकं बहु पृथुभूतं याव देवमनुस्से हि सुप्पकासितं ति ।'
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