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पुराणों में अवतारों की
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नृसिंह, कुब्ज ( अर्थात् वामन), तीन रामों (मायंव राम, दाशरथ राम एवं बलराम ), कृष्ण एवं कल्कि के नाम आये हैं ( इसमें बुद्ध का नाम नहीं है ) । अहिर्बुध्न्यसंहिता (५/५०-५७) में वासुदेव के ३० अक्तारों के नाम आय हैं जिनकी सूची श्री ओटो श्रेडर ने अपनी पंचरात्र एवं अहिर्बुध्न्यसंहिता की भूमिका में उपस्थित की है। विष्णपुराण (१।९।१३९ - १४१ ) में आया है कि लक्ष्मी विष्णु के अवतारों में उनके साथ आती हैं। पुराणों ने विष्णु के विभिन्न अवतारों के क्रिया-कलापों का पर्याप्त उल्लेख किया | किन्तु ऐसा नहीं समझना चाहिए कि शिव के अवतार नहीं थे । वायु (अध्याय २३) ने महेश्वर के २८ अवतारों का उल्लेख किया है जिनमें अन्तिम हैं नकुली ( लकुली), जैसा कि २२१ वें श्लोक में वर्णित है । वराह ( १५/१०-१९) में बुद्ध को छोड़कर सभी अवतारों के नाम हैं । बराह (४८।२०-२२) में आया है कि नरसिंह की पूजा से पापों के भय से मुक्ति मिलती है, वामन की पूजा से मोह का नाश होता है, परशुराम की पूजा से धन की प्राप्ति होती है, क्रूर शत्रुओं के नाश के लिए राम की पूजा करनी चाहिए, पुत्र की प्राप्ति के लिए बलराम एवं कृष्ण की पूजा करनी चाहिए, सुन्दर शरीर के लिए बुद्ध की तथा
बात के लिए कल्कि की पूजा करनी चाहिए । अग्निपुराण (४९/१-९) में दस अवतारों की मूर्तियों की विशेषताबों का उल्लेख है । बुद्ध की प्रतिमा के विषय में यों वर्णन है—मूर्ति में शान्तात्मा वाला मुख होना चाहिए, कर्ण लम्बे हों, अंग गौर हो, बुद्ध भगवान् उत्तरीय धारण किये हों, पद्मासन में बंदे हों और हाथों में वरद एवं अमय की मुद्रायें हों । ११७
विष्णु के दस अवतारों की परिगणना सम्पूर्ण भारत में कम-से-कम दसवीं शती तक प्रचलित हो चुकी थी, जैसा कि क्षेमेन्द्र ने अपने दशावतार- चरित (सन् १०६६ ई० में प्रणीत) एवं जयदेव ( लक्ष्मणसेन के दरबारी कवि ) ने गीतगोविन्द में उल्लिखित कर रखा है। इसके अतिरिक्त अपरार्क (१२ वीं शती के पूर्वार्ध में) ने भी मत्स्य द्वारा वर्णित दशावतारों के श्लोक का उद्धरण दिया है। कुमारिल (सातवीं शती) ने बुद्ध को अवतार नहीं माना, किन्तु तब तक बहुत से लोगों ने उन्हें भवतार मान लिया था (देखिए पाद-टिप्पणी सं० १२० ) । इसके अतिरिक्त, अवतारों की संख्या, नामों एवं क्रम के विषय में बहुत से दृष्टिकोण रहे हैं। देखिए डा० कत्रे का लेख (इलाहाबाद यूनिवर्सटी स्टडीज, जिल्द १०, पृ० ३७ - १३०) जिसमें ३३ अवतारों का विवेचन है । वराह अवतार का उल्लेख तोरमाण के एरण शूकर- प्रस्तराभिलेख (गुप्त इंस्क्रिप्शंस, पृ० १५८-१६० ) में हुआ है। इसकी तिथि: ६ की शती का प्रथम चरण है। रघुवंश (४१५३ एवं ५८) ने सहा पर्वत के पास, पश्चिमी समुद्र से, राम (भार्गवः)
११७. शान्तात्मा लम्बकर्णश्च गौरांगश्चाम्बरावृतः । ऊर्ध्वं पद्मस्थितो बुद्धो वरदाभयदायकः ॥ मग्नि (४९१८); बृहत्संहिता ५७/४ : पद्मांकितकरचरणः मसन्तमूर्तिः सुनीचकेशश्च । पद्मासनोपविष्टो पितेव जगतो मुबति बुद्धः ॥ देखिए वराह ४८।२०- २२; वामनं मोहनाशाय वित्तार्थ जमदग्निजम् । क्रूरशत्रुविनाशाय मजेदाशरविं बुषः । बलकृष्णो यजेद्धीमान् पुत्रकामो न संशयः । रूपकामो भजेद् बुद्ध शत्रुघाताय कल्किनम् ॥
११८. मत्स्यः कुर्मो बराह पुरुषहरिपुर्वामनो जामदग्न्यः । काकुत्स्यः कंसहन्ता स च सुगतमुनिः फर्किनासा विष्णुः ॥ दशावतारचरित ११२ ।
११९. अभिलेख का प्रथम श्लोक है: 'जयति परम्युद्धरणे घनघोषाघातघूर्णितमहीधः । देवो वराहमूतिस्त्रैलोक्यमहाहुस्तम्भः ॥ गुप्त इंस्क्रिप्शंस, पू० १५९ । यह अभिलेख जराज़ तोरमाण के राज्यकाल के प्रथम वर्ष में फाल्गुन की १० वीं तिथि को, जब कि नारायण के शूकर अवतार के मन्दिर का निर्माण हुआ था, तक्षित किया गया। मनुमानित तिथि है लगभग ५०० से ५१० ई० । यह अवतार कभी-कभी आदिवराह, यज्ञवराह, श्वेतवराह, महावराह
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