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भगवान् के अवतार का प्रचलित विश्वास
४८३ जन्म लेते हैं। बौद्धों ने अपने धार्मिक सिद्धान्त महायान के अनुसार बुद्ध को बुद्धत्व प्राप्त करने के पूर्व बहुत-से बोधिसत्त्वों के अवतारों के रूप में जन्म लेते हुए प्रदर्शित किया है। आधुनिक काल में भी बहुत-से व्यक्ति स्वयं अपने को तथा उनके अनुयायी-गण उन्हें अवतार कहते हैं। कुछ दिन पूर्व श्री जे० जी० बेन्नेट (हाडर एण्ड टाउघटन, १९५८) ने 'सु-बु-द' (सुशील, बुद्ध एवं धर्म) नामक एक पुस्तक प्रकाशित की है, जिसमें उन्होंने निर्देशित किया है और अपना विश्वास प्रकट किया है कि इण्डोनेशिया के निवासी पवित्र सुबुह एक अवतार हैं, वे ऊपर से एक दूत के रूप में आये हैं जिनकी बाट मानव-संसार जोह रहा था। भारतीय अवतार-सिद्धान्त युगों एवं मन्वन्तरों के सिद्धान्त से सम्बन्धित है। जब संसार गम्भीर क्लेश में पड़ जाता है, तब मनुष्यों का ऐसा विश्वास होता है कि परमात्मा के अनुग्रह से मुक्ति आयेगी और उनका यह विश्वास सत्य-सा प्रकट हो जाता है जब कोई विशिष्ट व्यक्ति किसी उदात्त भावना से प्रेरित होकर किसी विशिष्ट काल में किसी विशिष्ट स्थान पर आविर्भूत हो जाता है।
मध्य एवं वर्तमान काल में विष्णु के दस अवतार कहे जाते रहे हैं, यथा--मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह या नरसिंह, वामन, परशुराम, राम (दशरथ के पुत्र), कृष्ण, बुद्ध एवं कल्कि। वराहपुराण इन दस अवतारों को एक क्रम में रखता है। वराह-पेरुमल मन्दिर में शंकर-नारायण की प्रतिमा के ऊपर लिण्टेल भाग में जो शिलालेख है उसमें उक्त श्लोक तक्षित है, केवल प्रथम ६ अक्षर खण्डित हैं।१३ भगवद्गीता (४।७-८) में भगवान् के अवतरण के विभिन्न रूपों के विषय में आया है-जब-जब धर्म की ग्लानि होती है, अधर्म का उत्थान होता है, मैं अपना सर्जन करता हूँ। युग-युग में मैं अच्छे लोगों की रक्षा, दुष्टों के नाश एवं धर्म-संस्थापन के लिए जन्म लेता हूँ। यही भावना महाभारत के कुछ अन्य पर्वो में भी पायी जाती है, यथा-वनपर्व (२७२।७१) एवं आश्वमेधिक-पर्व (५४।१३)। कृष्ण एवं सम्भवतः राम ('रामः शस्त्रभृतामहम्', गीता १०।३१) को छोड़कर दशावतारों में किसी का नाम भगवद्गीता में नहीं आया है। महाभारत में अवतारों के नामों एवं संख्या में एक-क्रमता नहीं पायी जाती। शान्तिपर्व के नारायणीय उपाख्यान में केवल ६ अवतारों एवं उनके कार्यों का उल्लेख हुआ है (३३९।७७-१०२), यथा-वराह (समुद्र में मग्न पृथिवी को ऊपर लाते हुए), नरसिंह (हिरण्यकशिपु नामक राक्षस को मारते हुए), बामन (बलि को हराते एवं पाताल में उसे निवास कराते हुए), भार्गव राम (क्षत्रियों का नाश करते हुए), दशरथ
११२. मत्स्यः कूर्मों वराहश्च नरसिंहोय वामनः। रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्की च ते दश ॥ वराह ४।२।
११३. देखिए आपयालाजिकल सर्वे आव इण्डिया, श्री एच् कृष्ण शास्त्री द्वारा (मेम्बायर नं० २६) । महाबलिपुरम् (पृ. ५) के प्रस्तर-तक्षित मन्दिर में दो पल्लव राजाओं की मूर्तियों एवं पाँच पल्लव-अभिलेखों पर श्री एच० कृष्ण शास्त्री ने लिखते हुए व्यक्त किया है कि यह लेख ७ वीं शती के उत्तरार्ष का है। सुरक्षित लेख इतना है...हस्य मारसिंहश्च वामनः। रामो रामस्य (श्च) रामस्य (श्च ) बुद्ध (:) कल्की च ते दश । इस मेम्बायर के उसी पृष्ठ पर लिखा है कि मध्य प्रदेश के सीरपुर के एक तीर्थ पर लगभग आठवीं शती का एक मन्दिर है जिसमें राम एवंबर की प्रतिमाएं अगल-बगल में ध्यान मुद्रा में बैठायी हुई हैं।
११४. या यदा हि धर्मस्य ... सृजाम्यहम् । ... धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥ गीता (४७-८); मिलाइए हरिवंश १०४१।१७ 'यदा यदा...भारत। धर्मसंस्थापनार्थाय तदा सम्भवति प्रभुः॥' जज्ञे पुनः पुनर्विष्णुर्यज्ञे च शिथिले प्रभुः। कर्तुं धर्मव्यवस्थानमधर्मस्य च नाशनम् ॥ वायु (९८०६९), मत्स्य (४७। २३५, यहाँ 'धर्मे प्रशिथिले' एवं 'असुराणां प्रणाशनम्' का पाठ आया है); बह्वीः संसरमाणो वै योनीर्वामि सत्तम । धर्मसंरक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च ॥ आश्वमेधिक ५४।१३; असतां निग्रहार्थाय धर्मसंरक्षणाय च। अवतीर्णो
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