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________________ ४८२ धर्मशास्त्र का इतिहास में मन्त्रों में प्रयुक्त शब्दों का अर्थ प्रकट न हो पाता, वहीं कौत्स का यह दृष्टिकोण भी दिया हुआ है कि मन्त्रों के अर्थ को मानने के लिए निरुक्त निरर्थक एवं निरुपयोगी है, क्योंकि स्वयं मन्त्रों का कोई अर्थ नहीं है (या वे व्यर्थ या निरर्थक या उद्देश्यहीन या अनुपयोगी हैं)। यास्क ने उत्तर दिया है कि मन्त्रों के अर्थ अवश्य हैं क्योंकि उनमें ऐसे शब्द प्रयुक्त हैं जो सामान्य संस्कृत में प्रयक्त होते हैं, और वे इस कथन के उपरान्त ऐतरेय ब्राह्मण (११५) का एक वचन उद्धत करते हैं। शबर (जै० १।२।४१) का कथन है कि जब कोई व्यक्ति अर्थ नहीं लगा पाता तो वह अन्य वैदिक वचनों की विवेचना के सहारे किसी अर्थ को पा लेता है, या निरुक्त एवं व्याकरण के अनुसार धातुओं के आधार पर कोई-न-कोई अर्थ कर लेता है। अवतार-विवेचन विस्तार से वर्णित पुराण-विषयों में एक महत्त्वपूर्ण विषय है अवतार-विवेचन। धार्मिक पूजा, व्रतों एवं उत्सवों के विविध स्वरूपों पर अवतारों से सम्बन्धित पौराणिक धारणाओं का बड़ा प्रभाव पड़ा है। इस महाग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में हमने अवतारों के विषय में अध्ययन कर लिया है। वहाँ ऐसा कहा गया है कि अवतारों के सिद्धान्तों का आरम्भ तथा बहुत-से प्रसिद्ध अवतार वैदिक साहित्य में पाये जाते हैं, यथा-शतपथब्राह्मण में मनु एवं मत्स्य का उपाख्यान (१।८।१।१-६), कूर्म का (७।५।११५) एवं वराह का उपाख्यान (१४।१।२।११), वामन (१।२।५११) एवं देवकीपुत्र कृष्ण का उपाख्यान (छान्दोग्योपनिषद् ३।१७।६)। अवतारों की संख्या एवं नामों में भी बहुत भिन्नता पायी जाती है। किन्तु पहले अवतार-विवेचन विस्तार से नहीं हुआ था, अत: पुराणों एवं सामान्य बातों के आधार पर कुछ विशिष्ट बातें यहाँ कही जा रही हैं। . 'अवतार' (धातु तृ' एवं उपसर्ग 'अव') शब्द का अर्थ है उतरना अर्थात् ऊपर से नीचे आना, और यह शब्द देवों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जो मनुष्य रूप में या पशु के रूप में इस पृथिवी पर आते हैं (अवतीर्ण होते हैं) और तब तक रहते हैं जब तक कि वह उद्देश्य, जिसे लेकर वे यहां आते हैं, पूर्ण नहीं हो जाता। पुनर्जन्म (री-इनकारनेशन) ईसाई धर्म के मौलिक सिद्धान्तों में एक है। किन्तु उस सिद्धान्त एवं भारत के सिद्धान्त में अन्तर है। ईसाई धर्म में पुनर्जन्म एक ही है, किन्तु भारतीय सिद्धान्त (गीता ४।५।८ एवं पुराणों में) के अनुसार ईश्वर का जन्म कई बार हो चका है और भविष्य में कई बार हो सकता है। यह एक सन्तोष की बात साधारण लोगों में समायी हई सार की गति एवं कार्यों में गड़बड़ी होती है तो भगवान् यहां आते हैं और सारी कुव्यवस्थाएँ ठीक करते हैं। यह विश्वास न केवल हिन्दुओं एवं बौद्धों में पाया जाता है, प्रत्युत अन्य धर्मावलम्बियों में (पश्चिम के कुछ धनी एवं शिक्षित लोगों में भी) जो एक-दूसरे से बहुत दूर हैं, पाया जाता है । तब भी बहुत-से हिन्दू ऐसा नहीं विश्वास करते कि शंकराचार्य, नानक, शिवाजी या महात्मा गान्धी जैसे महान् व्यक्ति, सन्त एवं पैगम्बर अवतारों के रूप में पुनः आवश्यकता पड़ने पर (जब धर्म की हानि होती है, असुर, महा-अज्ञानियों की वृद्धि होती है आदि) १११. अथापीदमन्तरेण मन्त्रेष्वर्यप्रत्ययो न विद्यते।... तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य काय स्वार्थसाधकं च।...अर्थवन्तः शब्दसामान्यात् ।...यथो एतद् ब्राह्मणेन रूपसम्पन्ना विधीयन्त इति, उदितानुवादः स भवति । एतद्वै यज्ञस्य समृद्ध यत्कर्म क्रियमाणमृगभिवदति । निरुक्त (१३१५-१६); अविशिष्टस्तु वाक्यार्थः । ज० (१२२॥ ३२); अविशिष्टस्तु लोके प्रयुज्यमानानां वेदे च पदानामर्थः। स यथैव लोके विवक्षितस्तथैव वेदेपि भवितुमर्हति ।. . . अर्यप्रत्यायनार्यमेव यज्ञे मन्त्रोच्चारणम् ॥ शबर का भाष्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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