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________________ श्री अरविन्द घोष और ऋग्वेदार्थ ४८१ (जिसका प्रथम अर्ध भाग पर्जन्य एवं वायु देवता को सम्बोधित है) इस प्रकार है - 'है जगत् को प्रतिष्ठापित करने वाले ! ( मरुत् गण), जो सत्य फल देने में प्रसिद्ध हैं और विज्ञ हैं, ऐसे आप जगत् को उस मनुष्य की ओर घुमा दें जिसके गीतों से आप प्रशंसित हैं' (यह ऋचार्ध, ऐसा प्रकट होता है, मरुतों के झुण्ड या समूह को सम्बोधित है ) । जब और टिप्पणी व्यर्थ है । " मीमांसकों ने एक समेट में ( झाडूमार ढंग से ) यह सामान्यवाद प्रकाशित कर दिया है कि सम्पूर्ण वेद यज्ञ के लिए ही है । ऐसा कहने में वे बहुत आगे चले गये, किन्तु ऐसा करने के लिए उनके पास पर्याप्त तर्काधार था । हमने इस ग्रन्थ के खण्ड २ में यह देख लिया है कि किस प्रकार स्वयं ऋग्वेद से प्रकट है कि उन दिनों भी तीन सवनों, कई पुरोहितों, तीन अग्नियों वाले यज्ञ होते थे, यथा - अतिरात्र ( ऋ० ७ १०३।७) एवं त्रिकद्रुक (ऋ० १।३२।३, २।११।१७, ८ १३ १८, ८ ९२ २१, १०।१४।१६ ) नामक यज्ञ । मीमांसकों के पीछे प्राचीन परम्पराएँ चीं । किन्तु श्री अरविन्द के सिद्धान्त सर्वथा भिन्न हैं। बहुत ही निर्बल आधारों एवं त्रुटिपूर्ण अर्थों पर वे वैदिक मन्त्रों के साधारण एवं गूढ़ अर्थ वाले तथा देखने में भड़कीले ढांचे का निर्माण करके उद्घोषणा करते हैं कि ऋषियों ने अपने सिद्धान्तों को गोपनीय रखना चाहा था और वे जो कुछ कहना चाहते थे, वह सत्य था, प्रकाश था और था चेतना । यह हमने पहले ही देख लिया है कि ऋग्वेद में कई दार्शनिक एवं कल्पनात्मक ऋचाएँ हैं । किन्तु वहाँ संगोपन-सम्बन्धी कोई प्रवृत्ति नहीं है । यदि केवल सत्य (टूथ), प्रकाश (लाइट) एवं चेतना (कांशसनेस) तक ही वैदिक ऋषियों का सम्बन्ध था तो इसके लिए दस सहस्र पद्यों की आवश्यकता नहीं थी। लोग यह जानना चाहेंगे कि ऋ० ७१५५ ( सोता हुआ प्रलोभन या कान्ति या शोमा या माया आदि), ७।१०३ ( मण्डूक-स्तुति), १०।३४ (जुआरी का गान ), १०।११९ ( इन्द्र पर सोम की शक्ति की आनन्द - पुलकितावस्था), १०।१६६ ( शत्रुओं के नाश का आवाहन), १०।१९१ ( सहयोग एवं सहकारिता वाली) ऋचाओं में वह कौन-सा रहस्य या उच्चतर अथवा गूढ़तर सत्य का प्रकाश या चेतना है जो साधारण लोगों की दृष्टि से छिपा कर रखी हुई है। इसी प्रकार बहुत-सी ऐसी ऋचाएँ उदाहरण स्वरूप प्रकट की जा सकती हैं, जहाँ पर सत्य, प्रकाश एवं चेतना वाला सिद्धान्त पूर्णतया असफल एवं आधारहीन सिद्ध हो जायगा। इसके अतिरिक्त यह पूछा जा सकता है कि ऋ० १।१६४/४६, १०।१२९।२ एवं ८।५८।२ ( जो ऊपर उद्धृत है) में वह कौन-सा ( आध्यात्मिक या गूढ़ रहस्य है, जो अत्यन्त महान् सत्य को स्पष्ट रूप से प्रकट करता है । यदि मीमांसकों ने बहुत लम्बा एवं चौड़ा सामान्यवाद प्रकाशित किया है तो श्री अरविन्द ने बहुत ही क्षीण आधार पर उससे भी बड़ा एवं लम्बा-चौड़ा सामान्यवाद उद्घाटित कर दिया है, अर्थात् एक छोटी बात को बिना किसी पुष्ट आधार के बड़ी महत्ता दे देनी चाही है। ऋग्वेद के मन्त्रों का एक अर्थं होता है, न कि वे तान्त्रिक ग्रन्थों के मन्त्रों के समान बहुधा निरर्थक शब्दों के समुच्चय मात्र होते हैं । निरुक्त ( १।१५-१६ ) में एक विवाद दिया हुआ है, जहाँ यह आया है कि निरुक्त के अभाव ११०. श्री अरविन्द एवं उनके शिष्यों का कहना है कि उन्होंने वेद के विषय में एक ऐसा नया प्रकाश ग्रहण किया है जो प्राचीन एवं माधुनिक विद्वानों को गोचर नहीं हो सका है। श्री अरविन्द एवं उनके शिष्यों ने यास्क, जैमिनि, सायण एवं अन्य टीकाकारों को बड़ी निष्ठुरता के साथ पकड़ा है। श्री अरविन्द ने जो वैदिक निशाम्यास या रात्रि - अध्ययन किया है वह क्यों एवं कैसे गलत एवं त्रुटिपूर्ण है, यह कहने की स्वतन्त्रता अन्य लोगों को भी मिलनी चाहिए। श्री अरविन्द के भक्तों एवं समर्थकों से प्रार्थना है कि वे प्रस्तुत लेखक की भी अरविन्द के सिद्धान्तों से संबंधित आलोचनाओं को अन्यथा एवं असम्मानसूचक न समझें । ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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