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________________ श्री अरविन घोष और ऋग्वेदार्य ४७७ कुछ वर्ष पूर्व श्री अरविन्द घोष ने अपने 'हीम्स टु दि मिस्टिक फायर' (गूढ़ अर्थ में अनूदित, १९४६) में एवं उनके भक्त शिष्य श्री टी० वी० कपाली शास्त्री ने 'ऋग्भाष्यभूमिका' (संस्कृत एवं इसका अंग्रेजी अनुवाद, पाण्डिचेरी, १९५२) में ऋग्वेद के मन्त्रों के विषय में एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया है, जिसका थोड़े में यहाँ विवरण उपस्थित किया जा रहा है। श्री अरविन्द घोष ने सर्वप्रथम ऋग्वेद का शब्दशः सम्पादन एवं अंग्रेजी अनुवाद करना चाहा था, परन्तु अन्य कार्यों में अति व्यस्त होने के कारण उन्होंने वह विचार त्याग दिया और वे प्रथम, द्वितीय एवं छठे मण्डलों के २३० मन्त्रों तक उपर्युक्त ग्रन्थ निर्मित कर सके। उन्होंने इस ग्रन्थ में ४८ पृष्ठों की भूमिका में अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। जिन दिनों यह ग्रन्थ लिखा जा रहा था, प्रस्तुत लेखक (काणे) को श्री अरविन्द घोष लिखित ६३४ पृष्ठों का ग्रन्थ 'आन दि वेद' (१९५६ ई० में प्रकाशित) मिला। ६० से अधिक सूक्त इस विशाल ग्रन्थ में व्याख्यायित हैं और उपर्युक्त सिद्धान्त २८३ पृष्ठों में विवेचित हुआ है। 'आन दि वेद' के ९३ पृष्ठ पर उनक कथन है-'सायण द्वारा स्वीकृत नगमिक विधान ज्यों-का-त्यों रह जाय, यूरोपीयों द्वारा स्वीकृत प्रकृतिवादी विचारधारा सामान्य मान्यताओं के अनुरूप भले ही मान ली जाय, किन्तु इन सब के पीछे वेद का एक सत्य एवं गप्त रहस्य अब भी छिपा पड़ा हुआ है वे रहस्यभरे शब्द जो पवित्रात्माओं के लिए कहे गये थे तथा उनके लिए निःसृत हुए थे जो ज्ञान के रूप में जगे हुए थे।' इस पुस्तक में वे 'ऋत' का अर्थ 'सत्य' मानने पर अडिग हैं औ हैं और प०८४ पर 'ऋतम्' को 'सत्य-चेतना' के अर्थ में (द.थ-कांशसनेस) लिया है। ऋग्वेद के उन सैकड़ों स्थानों की, जहाँ 'ऋत' शब्द प्रयुक्त हुआ है, तुलना करके उन्होंने अपने अर्थ को ही सम्यक् एवं समीचीन माना है, जो अधिकांश लेखकों को मान्य नहीं है। लोग प्रकाश (लाइट) एवं चेतना (कांशसनेस) के आधुनिक एवं ऋग्वेदीय अर्थों के अन्तर को जानना चाहेंगे। जहाँ तक प्रस्तुत लेखक को ज्ञात है, प्राचीन प्रतीकवादी भाषा में 'चेतना' 'प्रकाश' के अनुरूप मानी जाती है। श्री अरविन्द घोष ने अपनी पुस्तक 'आन दि वेद' में सम्पूर्ण वेद के केवल १/१५ अंश (ऋग्वेद में कुल १०१७ या १०२८ सूक्त हैं) का उल्लेख किया है। उन्होंने प्रथम ग्रन्थ में ऋग्वेद के केवल १/४० वें भाग का अनुवाद करके यह चाहा है कि लोग उनकी मान्यता स्वीकार कर लें। उन्होंने 'ऋत' जैसे शब्दों की व्याख्या तक नहीं की है। __ श्री अरविन्द घोष ने यह स्वीकार किया है कि सायणाचार्य ने वेद की आध्यात्मिक प्रामाणिकता अस्वीकृत नहीं की है और माना है कि ऋचाओं में महत्तर सत्य भरा पड़ा है (प्राक्कथन, पृ० ३)। उन्होंने पुनः कहा है (प्राक्कथन, पृ०९) कि हमें यास्क (उन्होंने यास्क का उद्धरण नहीं दिया है, किन्तु सम्भवतः निरुक्त १२० : 'साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवुः' की ओर उनका आशय है) के संकेत को गम्भीरतापूर्वक लेना चाहिए। इसके उपरान्त उनका कथन है कि बहुत-सी वैदिक ऋचाएँ रहस्यवादी अर्थ वाली हैं (पृ० १७) और ऋषियों ने उन्हें गोपनीय बनाने के लिए दो अर्थों में रखा है, जो संस्कृत भाषा की एक सरल विधि है (पृ० १९)। यह एक ऐसी धारणा है जो मात्र कल्पना है और अन्य लोगों द्वारा मान्य नहीं हो सकती। वैदिक मन्त्र सहस्रों वर्ष पूर्व प्रणीत हुए, जब वे सभी लोग, जिनके बीच ऋषि रहा करते थे, उसी भाषा का व्यवहार करते थे, यद्यपि उनकी बोल चाल की भाषा उतनी परिमार्जित एवं कवित्वमय नहीं रही होगी जैसी मन्त्रों की है, और वे मन्त्र आजकल के लोगों को सम्बोधित नहीं थे जिनके विचार, परिस्थितियां एवं भाषाएँ भिन्न एवं पूर्णतया सर्वथा पृथक् हैं। गुरु एवं शिष्य, दोनों (श्री अरविन्द घोष एवं श्री कपाली शास्त्री) यह सोचकर कि जो कठिनाई आज के पाठकों के समक्ष है वही मन्त्रों के प्रणयन के समय भी थी, लोगों को भ्रम में डालते हैं (यह सम्भव है कि वे दोनों स्वयं भ्रम में हैं)। ऋग्वेद का सर्वोच्च अथवा उत्कृष्ट विचार यह है कि इन्द्र, वरुण, अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि विभिन्न देवों के भीतर केवल एक ही शक्ति है तथा मौलिक रूप में वही एक है। "आरम्भ में न तो कोई दिन था, न रात्रि थी और न थी अमरता"-स्वयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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