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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास ४७६ 'वचस्या' (सौ बार से अधिक), 'स्तोम' (२०० बार से अधिक), 'सुकीर्ति' (पाँच बार), 'सूक्त' (चार बार ) ; ये शब्द 'विचार, शब्द या विचारे हुए स्तोत्र या प्रशस्ति- वाक्य' के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। कतिपय प्रसंगों में ऋग्वेद के ऋषियों का कथन है कि यह एक नया पद्य या प्रशस्ति है (जिसे वे प्रयुक्त कर रहे हैं) । देखिए ऋ० ५।४२।१३, ६।४९।१, ७/५३१२, ११४३।१, ६१८१, ८२७४५७, १०/४/६, ६/६२/५, १/६०1३, ९/९१५, ९ ९ ८ | यह द्रष्टव्य है कि 'सुकीर्ति' एवं 'सूक्त' जैसे शब्द, जो केवल ४ या ५ बार प्रयुक्त हुए हैं 'नव्य' (नवीन) कहे गये हैं किन्तु 'मन्त्र' शब्द, जो कितनी ही बार प्रयुक्त हुआ है, 'नवीनता' के विशेषण से कभी भी सुशोभित नहीं किया गया है। इससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बहुत से मन्त्रों के समूह पहले से ही विद्यमान थे, जिनसे अवसर पड़ने पर प्रार्थनाएँ ग्रहण की जाती थीं, यद्यपि समय-समय पर नये पद्य भी जोड़े जाते थे । यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि कहीं-कहीं ऋग्वेद ने 'धीति' जैसी प्रार्थनाओं को दैवी कहा है और उन्हें अश्विनों, उषा एवं सूर्य ( ८1३५/२ ) की प्रार्थनाओं की श्रेणी में रखा है और यह भी कहा है कि प्राचीन प्रार्थनाएँ पूर्व - पुरुषों से प्राप्त की गयी हैं ( ३ | ३९१२, 'सेयमस्मे सनजा पित्र्याधीः ' ) । ऋग्वेद के बहुत से मन्त्र एवं सूक्त शुद्ध रूप से दार्शनिक, सृष्टि-सम्बन्धी, रहस्यवादी एवं कल्पनाशील हैं, यथा १।१६४ ४, ६, २९, ३२, ४२, १०।७१, १०९० ( पुरुषसूक्त), १०।१२१ ( हिरण्यगर्भ ), १०।१२९, १०।८१-८२ ( विश्वकर्मा), १०।७२, १०।१२५ ( वाक् ), १०।१५४ ( मृत्यूपरान्त की स्थिति), १०।१९० (सृष्टि) । वैदिक मन्त्रों के अर्थ एवं उपयोग के विषय में कई मतभेद हैं । यहाँ इतना कहा जा सकता है कि पूर्वमीमांसा के अनुसार सम्पूर्ण वेद का सम्बन्ध यज्ञों से है, वेद दो श्रेणियों में विभाजित है— 'मन्त्र एवं ब्राह्मण या विधि वाक्य', ' जो वेद के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग हैं। वैदिक वचनों में बहुत-से अर्थवाद हैं ( या तो वे विधियों की प्रशस्तियाँ हैं या रूपक द्वारा व्याख्या के योग्य हैं, या वे केवल वही दुहराते हैं जो विद्यमान है या केवल काल्पनिक हैं) तथा मन्त्र केवल यजमान या पुरोहितों के मन में यह बात बैठाने का कार्य करते हैं कि यज्ञ में क्या करना है तथा मन्त्रों में प्रयुक्त शब्द वही अर्थ रखते हैं जो सामान्यतः संस्कृत भाषा में पाये जाते हैं । के पूर्व ( ईसा से कई शतियों पूर्व ) वैदिक मन्त्र-व्याख्या की कई शाखाएँ थीं, यथा ऐतिहासिकों (जिन्होंने निरुक्त २।१६ में ऐसा कहा है कि वृत्र 'त्वष्टा' का पुत्र एवं असुर है, नैरुक्तों के अनुसार वृत्र का अर्थ 'बादल' है । वेद में युद्धों का आलंकारिक विवरण है, तथा वे युगल जिन्हें ऋ० १०।१७।२ के अनुसार सरण्यु ने त्यागा था, इन्द्र एवं माध्यमिका-वाक् थे, जब कि ऐतिहासिकों के अनुसार वे यम एवं यमी हैं, जैसा कि निरुक्त १२०१० में वर्णित है ) की शाखा, नंदानों की शाखा (स्याल एवं साम, निरुक्त ६।१९), पुराने याज्ञिकों की शाखा (निरुक्त ५।११, ऋ० १।१६४।३२) । परिव्राजकों एवं नैरुक्तों ने याज्ञिकों की शाखा की व्याख्या विभिन्न ढंग से की है। निरुक्त में ऐसे १७ पूर्ववर्ती लोगों का उल्लेख है जो उससे भिन्न मत रखते थे और आपस में भी एक-दूसरे से भिन्न थे, यथा-- आग्रायण, औदुम्बरायण, कौत्स, गार्ग्य, गालव, शाकटायन, शाकपूणि । कई ऐसे मन्त्र हैं जिनके दो-दो अर्थ निरुक्त द्वारा किये गये हैं (यथा-ऋ० ८ ७७१४, निरुक्त ५।११) । ऋ० १।१६४ में कई मन्त्रों के दो अर्थं या अधिक अर्थ कहे गये हैं, सायण ने ३९ वें मन्त्र के चार अर्थ किये हैं, ४१ वें मन्त्र का अर्थ सायण ने दो प्रकार से किया है और वे दोनों अर्थ यास्क ( निरुक्त ११1४० ) से भिन्न हैं; ४५ वें मन्त्र की व्याख्या सायण ने ६ प्रकार से की है, इसका अर्थ महाभाष्य ने भी किया है । ऋ० ४।५८ | ३ ( चत्वारि शृंगा : ) का अर्थ आरम्भिक कालों से ही कई प्रकार से किया जाता रहा है । निरुक्त ( १३।७ ) ने इसे यज्ञ से सम्बन्धित माना है । यही बात महाभाष्य में भी पायी जाती है । सायण ने इसे अग्नि ( यज्ञीय) से सम्बन्धित माना । यह एक पहेली ही है। शबर ने पूर्वमीमांसासूत्र ( १ २ ३८ ) के भाष्य में इसका अर्थ किया है, किन्तु कुमारिल ने अपना मतभेद प्रकट किया है । ऋ० ( १/१६४ ) में ११-१३ एवं ४८ मन्त्र बहुत ही कल्पनाशील एवं कवित्वमय हैं, इनमें वर्ष, ऋतुओं, मासों, सम्पूर्ण दिनों एवं रात्रियों का वर्णन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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