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ऋचाओं का अर्य-संबन्धी प्रसंग है। वल्लभाचार्य द्वारा संस्थापित भक्ति-सम्प्रदाय में गुरु को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है, वह गुरु वल्लभाचार्य के वंशजों में होता है और उसे दिव्य सम्मान दिया जाता है। एक अन्य भक्ति-शाखा राम एवं सीता को लेकर चली है जो रामायण एवं अन्य परम्पराओं में पालित हुई है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम और उनकी पत्नी सीता मधुरा भक्ति के अति शालीन प्रतीक हैं। वल्लभाचार्य के अनुयायियों में गुरु भक्त से आशा करता है कि वह उसे (गुरु को) कृष्ण समझे और स्वयं अपने को गोपी समझे । स्थानाभाव के कारण हम अन्य भक्ति-शाखाओं का विवरण यहाँ नहीं उपस्थित कर सकेंगे।
वेदार्थ पर कुछ विचार आराधना एवं कर्मकाण्ड के प्रसंग में वैदिक एवं पौराणिक मन्त्रों को परम महत्त्व प्रदान किया गया है। तन्त्रों एवं पूर्वमीमांसा के प्रकरण में हम उन पर विस्तार से विवेचन उपस्थित करेंगे। किन्तु थोड़े में, विशेषतः वैदिक मन्त्रों के विषय में, यहाँ कुछ कहा जा सकता है। ऋग्वेद में 'मन्त्र' शब्द लगभग २५ बार आया है। केवल एक बार 'मन्त्रकृत' शब्द आया है। अपने ग्रन्थ 'ऋग्भाष्य-भूमिका' (अंग्रेज़ी में) में कपाली शास्त्री ने यह त्रुटिपूर्ण बात कही है-'हम ऋक् संहिता में मन्त्र के प्रणेता के रूप में ऋषि का उल्लेख बहुधा पाते हैं, और वे केवल ऋ० ९।११४।२ एवं १२६७।२ का हवाला दे पाते हैं। किन्तु ११६७।२ में 'मन्त्रकृत्' शब्द आया भी नहीं है। ऋ० १६७२ में प्रत्यक्ष रूप से 'ऋषि' की ओर कोई संकेत नहीं है, केवल 'नर' की ओर है। प्राचीन काल में मन्त्रों द्वारा इन्द्र को दिन में तीन बार थोड़ी देर के लिए बुलाया जाता था (ऋ० ३१५३३८)। इसी प्रकार विज्ञ लोग यम को हवि देने के लिए मन्त्रों द्वारा बुलाले थे (ऋ० १०११४१४) ऋ० (१०८८।१४) में आया है-'हम मन्त्रों के साथ अपना स्वर वैश्वानर अग्नि की ओर उठाते हैं, जो विज्ञ हैं और जो सभी दिनों में प्रकाश के साथ चमकते हैं।' कभी-कभी 'मन्त्र' शब्द एकवचन में भी आया है, यथा ऋ० ११४०।५-६, ७।३२।१३, १०।१९१।३। और भी देखिए ऋ० ११३१३१३, ११७४११, १२१४७।४, १११५२१२, २॥३५।२, ६।५०।१४, ७१७।६, १०५०।४ एवं ६, १०।१०६।११। दो स्थानों (ऋ० १०१९५।१ एवं १०।१९१३) में 'मन्त्र' शब्द का अर्थ है 'परामर्श, एकत्र हो मन्त्रणा करना।' ऋ० (१।२०।४) में 'ऋभुओं को 'सत्यमन्त्राः' कहा गया है और ऐसा कहा गया है कि उन्होंने अपने माता-पिता को युवा बना दिया था। 'ऋमु' कोन हैं और 'सत्यमन्त्राः' से उनका क्या सम्बन्ध है, इस विषय में मतभेद है, स्पष्ट रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। ऋ० (७१७६१४) प्रहेलिकामय कथन है। इसका अर्थ है-'केवल वे (अंगिरा), हमारे पुराने पितर लोग विद्वान् (विज्ञ) लोगों और उचित मार्ग का अनुसरण करते हुए देवों के साथ का आनन्द लेते रहे और उन्होंने (स्वर्मानु या ग्रहण द्वारा) छिपाये गये प्रकाश (सूर्य) को प्राप्त किया। उन्होंने, जिनके मन्त्र सत्य थे, उषा को प्रकट किया।' कुछ वचनों में, जहां स्तोम या ब्रह्म जैसे शब्द आये हैं, कहा गया है कि भक्त द्वारा स्तोम या ब्रह्म निर्मित किये गये या चमकाये गये (ऋ० १०१३९।१४, ५।२९।१५, ७।३२।२ एवं १०५०७)। 'गिर्' (कई सो बार), 'घीति' (लगभग सौ बार), 'ब्रह्म' (एक सौ से अधिक बार), 'यति' (लगभग सौ बार), 'मनीषा' (६० बार से अधिक), 'वचस्' एवं
१०३. ऋषे मन्त्राता स्तोमैः कश्यपोवर्धयन् गिरः। सोमं नमस्य राजानं यो जज्ञे वीरुषां पतिरिन्द्रायेन्दो परि लव॥० (९।११४॥२) हस्ते दषानो नम्णा विश्वान्यमे देवान्धाद् गुहा निवीदन् । विदन्तीमत्र नरो षियं का हवा यत्तष्टान् मन्त्री अशंसन् ॥ ऋ० (११६७४२); सायण ने व्याख्या की है : 'अग्नौ हविभिः सह पलायिते सति सर्वे देवा अनेषुरित्यर्थः।' बजो ना बाधार पृथिवीं तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभिः सत्यः । ऋ० (११६७।३)।
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