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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास परलोक में कोई उपयोग नहीं होता।' कुछ नास्तिक सम्प्रदायों की जानकारी के लिए देखिए श्री राधाकृष्ण चौधरी कृत लेख ' हेरेटिकल सेक्टस इन दि पुराणज़' (ए० बी० ओ० आर० आई०, जिल्द ३७, १९५६ ) । गीता (१६ वा अध्याय) ने मानवों को दो श्रेणियों में बाँटा है - देवी प्रवृत्ति वाले एवं आसुरी प्रवृत्ति वाले और दूसरी श्रेणी के लोगों को ७-२० श्लोकों में वर्णित किया है। कुछ श्लोकों से प्रकट होता है कि वहाँ नास्तिकों आदि की ओर निर्देश है, क्योंकि ८वें श्लोक में आया है - 'उनके कथनानुसार यह विश्व सत्यरहित है ( अर्थात् इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिसमें लोगों का विश्वास हो ), इसमें कोई स्थिर सिद्धान्त नहीं है ( यथा गुण या दोष), यह शासक- रहित है, यह केवल कामजनित संयोग द्वारा उत्पन्न है।' उनके विचारों एवं आकांक्षाओं के उल्लेख के उपरान्त गीता ने निष्कर्ष निकाला है - 'ये ऐसे यज्ञकर्म करते हैं जो केवल नाम मात्र हैं, उनमें केवल छाद्मिकता है और वे विधि-व्यवस्था के प्रतिकूल हैं; वे मुझे अपने लोगों एवं अन्य लोगों में घृणा की दृष्टि से देखते हैं; इन अपवित्र एवं क्रूर दुष्टों को मैं सदैव आसुरी योनियों में फेंकता जाता हूँ; आसुरी जन्मों में प्रविष्ट हो वे मोहित रहते हैं, प्रत्येक जन्म में वे अत्यन्त बुरी स्थितियों में पड़ जाते हैं और मेरे पास नहीं पहुँच पाते हैं।' पद्म एवं अन्य पुराणों ने पाशुपतों, पाञ्चरात्रों एवं अन्य अवैष्णवों के विषय में जो कुछ कहा है उससे उपर्युक्त कथन पूर्णतया भिन्न है । भागवत माहात्म्य या पद्म में आया है कि भक्ति का उद्भव सर्वप्रथम द्रविड़ देश में हुआ, इसकी वृद्धि कर्णाटक में हुई, यह महाराष्ट्र के कुछ ही स्थानों में पायी गयी और गुर्जर देश में इसकी अवनति हुई; यह भयंकर कलियुग के कारण पाखण्डियों द्वारा खण्डित हो गयी और चिरकाल तक दुर्बल पड़ी रही; किन्तु वृन्दावन (मथुरा के पास) पहुँच कर इसने नवीन रूप धारण किया और सुरूपिणी हो गयी ( भागवतमा० १२४१४८-५०; पद्म० ६।१८९।५४-५६) । भागवत ( ११।५।३८ - ४० ) में पुनः आया है कि कलियुग में लोग कहीं कहीं पूर्णतया नारायणभक्त होंगे, किन्तु द्रविड़ देश में, जहाँ ताम्रपर्णी, कृतमाला, कावेरी एवं महानदी पश्चिम में बहती हैं, ऐसे लोग अधिक विस्तार से पाये जायेंगे, जो लोग इन नदियों का जल पीते हैं वे सामान्यतः वासुदेवभक्त होते हैं। ૪૭૪ यह अधिकतर देखने में आता है कि अधिकांश नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्क्रान्तियाँ आगे चलकर हीन अवस्था को प्राप्त हो जाती हैं। यह बात भागवत धर्म के साथ भी हुई। अत्रि-संहिता में भागवतों के विषय में एक व्यंग्यात्मक संकेत मिलता है ( श्लोक ३८४ ) - 'वेदविहीन लोग शास्त्र ( व्याकरण, वेदान्त, न्याय आदि) पढ़ते हैं; शास्त्रहीन लोग पुराण पढ़ते हैं; पुराणहीन लोग कृषक होते हैं; किन्तु जो वहाँ भी भ्रष्ट होते हैं, वे भागवत हो जाते हैं । १०२ अत्रि के कहने का तात्पर्य यह है कि भागवत लोग आलसी होते हैं, जो न तो वेद पढ़ते हैं, न शास्त्र पढ़ते हैं और न अपनी जीविका के लिए औरों को पुराण पढ़कर सुनाते हैं, यहाँ तक कि खेती (श्रम) भी नहीं करते, वे केवल विष्णु या कृष्ण के भक्त बनकर अन्य लोगों के दानों पर मोटे मुस्टण्डे बने रहते हैं, मानो भगवान् की भक्ति में पड़कर वे सब कुछ का त्याग कर बैठे हैं । वे मराठी भाषा में 'बुवा' और हिन्दी में 'बाबाजी' के नाम से विख्यात हैं।भक्ति सम्प्रदाय का एक अन्य मनोरंजक विकास है मधुरा भक्ति, जो कृष्ण एवं राधा की भक्ति से सम्बन्धित है और चैतन्य एवं वल्लभाचार्य द्वारा संस्थापित वैष्णववाद के रूप में प्रकट हुई है। इस विषय में देखिए डा० एस ०. के० दे कृत 'दि वैष्णव फेथ एण्ड मूवमेण्ट इन बेंगाल' ( कलकत्ता, १९४२) एवं प्रस्तुत लेखक का ग्रन्थ 'हिस्ट्री आव संस्कृत पोइटिक्स' (१९५१), जहाँ पृ० २९८ - ३०२ में रूप गोस्वामी कृत उज्ज्वलनीलमणि के विषय में उल्लेख १०२. वेदविहीनाश्च पठन्ति शास्त्रं शास्त्रेण हीनाश्च पुराणपाठाः । पुराणहीनाः कृषिणो भवन्ति भ्रष्टास्तती भागवता भवन्ति ॥ अत्रिसंहिता (३८४ वां श्लोक) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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