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पुराणों में असहिष्णुता की कटूक्तियां विष्णुपुराण एवं पद्मपुराण में ही ऐसी निन्दोक्तियाँ नहीं पायी जातीं कि स्वयं विष्णु या शिव को नास्तिकों एवं वेदविरोधियों को मोह में डालने के लिए भ्रामक सिद्धान्त प्रतिपादित करने पड़े, प्रत्युत अन्य पुराण भी यही गीत गाते हैं। उदाहरणार्थ, कूर्मपुराण ने कई शास्त्रों एवं पद्धतियों के विरोध में कई स्थानों पर विचार प्रकट किये हैं। दो-एक वचन यहाँ दिये जा रहे हैं। देवी कहती हैं-'बहुत-से शास्त्र जो इस लोक में विद्यमान हैं और श्रुतियों एवं स्मृतियों के विरुद्ध हैं वे तामस हैं, यथा-कापाल, भैरव, यामल (एक प्रकार के तान्त्रिक ग्रन्थ), वाम (तान्त्रिकों के एक वर्ग की वाम क्रियाएँ), आर्हत (जैन सिद्धान्त),ये तथा अन्य केवल मोह उत्पन्न करने के लिए हैं। मैंने दूसरे जन्म में लोगों को मोह में डालने के लिए इन शास्त्रों को प्रकट किया'; 'अत: उन लोगों की उनसे, जो वेद-प्रभाव से बाहर हैं, रक्षा के लिए तथा पापियों के नाश के लिए हम, हे शिव, उन्हें मोहित करने के लिए शास्त्र लिखेंगे। इस प्रकार माधव (कृष्ण) द्वारा बताये जाने पर रुद्र ने शास्त्र प्रणीत किये और लोगों को भ्रमित किया तथा रुद्र द्वारा प्रेरित हो विष्णु ने भी वैसा ही किया; दोनों ने कापिल, नाकुल, वाम, भैरव (पूर्व एवं उत्तरकालीन), पाञ्चरात्र, पाशुपत तथा सहस्रों अन्य शास्त्र बनाये ।१०९ 'शंकर मानवमुण्डों की माला पहन कर एवं श्मशान से भस्म लेकर शरीर में लगाकर , जटाजूट बाँधे हुए, इस संसार को मोहित करते हुए तथा अन्य लोगों के कल्याण के लिए भिक्षा मांगते हुए इस पृथिवी पर उतरे।' 'शब्दों द्वारा भी पाञ्चरात्र एवं पाशुपत लोगों का सम्मान नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे नास्तिक हैं, वर्जित वृत्तियाँ करते हैं और वाम शाक्त आचरण करते हैं। जब बौद्ध साधु, निम्रन्थ, पाञ्चरात्र सिद्धान्तवादी, कापालिक, पाशुपत एवं अन्य समान नास्तिक लोक (पाषण्डी लोग) जो दुष्ट एवं मोहित होते हैं, श्राद्ध का भोजन खा लेते हैं तो वह श्राद्ध निरर्थक हो जाता है, उसका इस लोक एवं
वाले श्लोकों में कृष्ण के १०८ नाम आये हैं। विष्णु के १००८ नाम महाभारत, अनुशासनपर्व (१४९।१४-१२०) एवं गड़पुराण (१।१५।१-१६०) में आये हैं।
१०१. पानि शास्त्राणि दृश्यन्ते लोकेऽस्मिन्विविधानि तु । श्रुतिस्मृतिविरुद्धानि निष्ठा तेषां हि तामसी॥ कापालं भैरवं चैव यामलं वाममाहर्तम् । एवं विधानि चान्यानि मोहनार्यानि तानि तु ॥ मया सृष्टानि शास्त्राणि मोहायैषां भवान्तरे॥ कूर्म० १११२।२६१-२६३; और देखिए कूर्मः १२१६६१७-१९ एवं २४-२६ जहाँ कापाल, नाकुल, वाम, भैरव, पांचरात्र एवं पाशुपत उसी कार्य के लिए उत्पन्न उल्लिखित हैं। ताराभक्तिसुषार्णव (छठी तरंग) ने कूर्म का उखरण देते हुए कहा है कि ये वचन केवल वेव की प्रशंसा में कहे गये हैं, उन्हें ऐसा नहीं समझना चाहिए कि वे तान्त्रिक भागमों को अप्रामाणिक सिद्ध करते हैं। 'नाकुल' वही हैं जो लकुलीश-पाशुपत-वर्शन में वर्णित हैं (देखिए सर्वदर्शनसंग्रह)। लिंगपुराण (२४।१२४-१३३) में लकुली के विषय में विस्तार से उल्लेख है। वायुपुराण (२३॥ २२१-२२४) में आया है कि लकुली एक शैव सम्प्रदाय का प्रवर्तक था और कायारोहण (आधुनिक कारवण, बड़ोदा के उभोई तालका में अवस्थित) उसका सिब-क्षेत्र था। मयुरा अभिलेख, जो चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल (गप्त संवत् ६१, ई० ३८०) का है, बताता है कि पाशुपत सम्प्रदाय का प्रवर्तक लकुली ईसा के उपरान्त प्रथम शती में हुमाया (एपि० इण्डि०, जिल्ब २१)। देखिए ग० आर० जी० भण्डारकर कृत वैष्णविज्म, शैविज्म आवि, पृ. १६६ एवं 'ऐष्टिक्विटीज इन कारवन विथ रेफेरेंस टु लकुलीश वशिष' (जर्नल माव बाम्बे यूनि०, जिल्द १८, भाग ४, पृ०४२-६७); एपि.णि, जिल्द २१, पृ०१-९, जे०बी० बी० आर०ए०एस०, जिल्ब २२, पृ० १५१-१६७ (दोनों में डा०1० आर० भण्डारकर के लेख हैं); इण्डि हिस्ट्रा० क्वा०, जिल्द १९, १९४३, पृ० २७०-२७१, वहाँ पर लकुली सम्प्रदाय के उद्गम एवं इतिहास का उल्लेख है।
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