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धर्मशास्त्र का इतिहास
जैनों एवं बौद्धों की भर्त्सना करते हुए पुराण इतो आगे चले गये कि वे गीता (९।२३) के बचन को भी भूल गये (देखिए टिप्पणी ९३ ) और कहने लगे कि जो ब्राह्मण वैष्णव नहीं है वह नास्तिक ( पाषण्डी) है; स्वयं विष्णु ने बुद्ध का रूप धारण करके एक भ्रामक शास्त्र की उद्घोषणा की और सभी शास्त्र, यथा -- पाशुपत, कण्णा का वैशेषिक, गौतम का न्याय, कपिल का सांख्य एवं बृहस्पति का चार्वाक तामस हैं; शंकर का मायावाद एक भ्रामक शास्त्र है और प्रच्छन्न (छिपा हुआ, दूसरे वेश में) बौद्ध है तथा जैमिनि का विशाल शास्त्र (पूर्वमीमांसा ) निन्दित क्योंकि इसने देवों को अपनी पद्धति के भीतर निरर्थक सिद्ध कर दिया है। पद्मपुराण (६।२६३/६७-७१ एवं ७५० ७६) में इस प्रकार आया है" - "हे देवि, सुनिए, मैं क्रम से तामस शास्त्रों के विषय में बताता हूँ, जिनके स्मरण मात्र. से ज्ञानी लोग भी पतित हो जाते हैं । सर्वप्रथम मैंने शैव शास्त्रों, यथा पाशुपत का उद्घोष किया; इसके उपरान्त
शक्ति से अभिभूत हो ब्राह्मणों ने निम्नोक्त शास्त्र उद्घोषित किये, यथा -- कणाद ने वैशेषिक पद्धति का उद्घोष किया; न्याय एवं सांख्य पद्धतियाँ क्रम से गौतम एवं कपिल द्वारा उद्घोषित हुई; अति गर्हित चार्वाक सिद्धान्त की उद्घोषणा बृहस्पति ने की; स्वयं विष्णु ने बुद्ध का रूप धारण करके दैत्यों का नाश करने के लिए उन बोड़ों के भ्रामक सिद्धान्त की उद्घोषणा की जो नंगे चलते हैं या नीला वस्त्र धारण करते हैं। स्वयं मैंने हे देवि, ब्राह्मण रूप धारण करके कलियुग में उस मायावाद के भ्रामक शास्त्रों की उद्घोषणा की, जो प्रच्छन्न बौद्ध हैं। ब्राह्मण जैमिनि ने उस पूर्वमीमांसा का प्रणयन किया जो अपने निरीश्वरवादी दृष्टिकोण के कारण व्यर्थ है ।" सांख्यप्रवचन भाष्य में विज्ञानभिक्षु (लगभग १५५० ई०) ने पद्मपुराण ( ६ । २६३ ) के कतिपय श्लोक उद्धृत किये हैं और एक ऐसा विचित्र मत प्रकाशित किया है कि कोई भी शास्त्र, जो आस्तिक ( जो आत्मा को मानता ) है, अप्रामाणिक नहीं है. और न कहीं कोई विरोध है, प्रत्येक शास्त्र अपनी परिधि में शक्तिशाली एवं सत्य है । वह मौलिक सांख्यसूत्र, जिस पर उसने टीका की है, यह असम्भव स्थापना रखता है कि सांख्य की शिक्षाएँ ब्रह्म की विभुता एवं एकता वाले सिद्धान्त के विरोध में नहीं पड़तीं। साम्प्रदायिक अनन्यसमानता एवं कट्टरपन इतना आगे बढ़ गया कि ब्रह्माण्ड में अगस्त्य एवं राम की वार्ता के बीच में कह दिया गया है कि कृष्ण ( जो स्वयं विष्णु के एक अवतार हैं) के १०८ नाम इतने शक्तिशाली हैं कि विष्णु के १००८ नामों को तीन बार कहने से जो पुण्य प्राप्त होता है वह कृष्ण के १०८ नामों में केवल एक को एक बार कह देने से प्राप्त हो जाता है।
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सर्वाणि मयैव कथितानि हि । मूर्त्यन्तरं तु गत्वैव मोहनाय दुरात्मनाम् ॥ कुलार्णवतन्त्र ( २।९६-९७, आर्थर एवाली द्वारा सम्पादित) ।
९९. शृणु देवि प्रवक्ष्यामि तामसानि यथाक्रमम् । येषां स्मरणमात्रेण पातित्यं ज्ञानिनामपि ॥ प्रथमं हि मया चोक्तं शैवं पाशुपतादिकम् । मच्छक्त्या वे शिर्तविप्रेः प्रोक्तानि च ततः शृणु ॥ कणादेन तु संप्रोक्तं शास्त्रं वैशेषिकं महत् । गौतमेन तथा न्यायं सांख्यं तु कपिलेन वं ॥ विषणेन तथा प्रोक्तं चार्वाकमतिगर्हितम् । वैत्यानां नाशनार्थाय विष्णुना बुद्धरूपिणा । बौद्धशास्त्रमसत्प्रोक्तं नग्ननीलपटादिकम् । मायावादमसत्छास्त्रं प्रच्छलं बौद्धमुच्यते । मयैव कथितं देवि कलौ ब्राह्मणरूपिणा ॥ द्विजन्मना जैमिनिना पूर्व चेदमपार्थकम्। निरीश्वरेण वावेन कृतं शास्त्रं महत्तरम् ॥ पद्म ० ( ६ । २६३।६७-७१ एवं ७५-७६, सांख्यप्रवचनभाष्य, पृ० ६-७ में विज्ञानभिक्षु द्वारा उद्धृत) ।
१०० शृणु देवि प्रवक्ष्यामि नाम्नामष्टोत्तरं शतम् । सहस्रनाम्नां पुण्यानां त्रिरावृत्या तु यतत्फलम् ॥ एकाच्या यस्य नामक तत्प्रयच्छति । तस्मात्पुण्यतरं चैतत् स्तोत्रं पातकनाशनम् ।। ब्रह्माण्ड ० ( ३ । ३६।१८-२०) २१-४१
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