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पुराणों में धार्मिक अत्युक्तियां एवं निन्दाएं कर दिये गये हैं। उदाहरणार्थ, मत्स्य (२४१४३-४९) में आया है कि रजि के पुत्रों ने इन्द्र को राज्य एवं यज्ञों के भाग (अंश) से वंचित कर दिया; इन्द्र की प्रार्थना पर बृहस्पति ने वेद के विरुद्ध जिन-धर्म नामक ग्रन्थ लिखकर रजि के पुत्रों को भ्रमित कर दिया और तब इन्द्र ने उन्हें मार डाला। वायु (९६।२३०-३२), मत्स्य (४७।११-१२), भागवत (१।३।२४) ने, लगता है, ऐसा कहा है कि स्वयं विष्णु ने लोगों को भ्रम में डाल दिया। अग्नि (१६॥ १-४) में भी आया है कि विष्ण ने बौद्धों को भ्रमित कर दिया था। विष्णुपुराण (३।१७-१८) में उल्लिखित है कि जब देव लोग असुरों (जो तप करते थे और वेदाध्ययन करते थे) द्वारा पराजित हुए तो वे विष्णु के पास गये और सहायता के लिए प्रार्थना की। इस पर विष्णु ने अपने शरीर से माया-मोह उत्पन्न किया और उसे देवों को समर्पित कर दिया। मायामोह नंगा था, उसने अपना सिर मुंड़ा रखा था और उसके हाथ में मोर के पंख थे। वह नर्मदा के तटों पर तप करने वाले असुरों के पास गया (३।१८।१२) और बोला कि यदि दे उसकी बात मानेंगे तो मुक्ति की प्राप्ति करेंगे। उसने उन्हें वेद के मार्ग से विचलित कर दिया और उन्हें हठवादी तर्क के नियम बतलाकर धर्म से विचलित कर दिया। इसके उपरान्त वह अन्य असुरों के पास जाकर बोला कि पशु-यज्ञ पापमय है और उन्हें निर्वाण एवं विज्ञानवाद का पाठ पढ़ाया। कुछेक वचन बड़े विचित्र हैं--'कुछ ही क्षणों में असुर लोग मायामोह द्वारा मोहित हो गये और तीनों वेदों पर आश्रित मार्ग का अवलम्बन छोड़ दिया। कुछ ने वेदों की निन्दा की, कुछ ने देवों की, तथा यज्ञ-कार्यकलापों एवं ब्राह्मणों की निन्दा की। (उन्होंने सोचा या कहा कि) 'धर्म के लिए (यज्ञों में) हिंसा (पशु-बलि) उचित है ऐसा कथन तर्कसंगत नहीं है। ऐसा कहना कि अग्नि में हवि डालने से (उस लोक में) फल मिलेगा, मूर्खता है; (यदि ऐसा कहा जाय कि) बहुत-से यज्ञों के द्वारा ही इन्द्र को देवत्व की स्थिति प्राप्त हुई और वह शमी वक्ष की समिधा का उपभोग करता है, तो वह पश जोशमी की पत्तियाँ खाता है, इन्द्र से बढकर है। यदि वेद एसा चाहते हैं कि यज्ञ में बलि दिया हुआ पशु स्वर्ग प्राप्त करता है, तो यजमान स्वयं अपने पिता को यज्ञ में क्यों नहीं मार डालता (और उसे स्वर्ग में भेज देता)? यदि कोई (पुत्र) (इस विचार से) श्राद्ध करता है कि जो किसी द्वारा खाया जाता है (श्राद्ध में ब्रह्मभोज) उससे दूसरे (यजमान के मृत पिता) की तृप्ति होती है, तो यात्री लोग ; (अपनी पीठ पर) अन्न न ढोते और न थकते।' ये ऐसे तर्क हैं जिन्हें नास्तिक (चार्वाक लोग) प्रयोग में लाते हैं।" यह द्रष्टव्य है कि कुलार्णवतन्त्र जैसे तान्त्रिक ग्रन्थ शिव से ऐसा कहलाते हैं कि उन्होंने कुछ शास्त्रों का . उद्घोष केवल दुष्ट लोगों को, जो कौल धर्म नहीं जानते हैं, मोहित करने के लिए किया था।
__ ९७. स्वल्पेनैव हि कालेन मायामोहेन तेऽसुराः। मोहितास्तत्यजुः सा त्रयीमार्गाश्रितां कयाम् ॥ केचिद् विनिन्दावेदानां देवानामपरे द्विज । यज्ञकर्मकलापस्य तथान्ये च द्विजन्मनाम् ॥ नतद्युक्तिसहं वाक्यं हिंसा धर्माय चेष्यते । हीष्यनलदग्धानि फलायेत्यर्भकोदितम्॥ यज्ञरनेकर्देवत्वमवाप्येन्द्रेण भुज्यते । शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तद्वरं पत्रभुक् पशुः॥ निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्षदीष्यते। स्वपिता यजमानेन किन्नु तस्मान्ल हन्यते॥ तृप्तये जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेत्ततः। कुर्याच्छावं श्रमायानं न वहेयुः प्रवासिनः॥ विष्णुपु० (३।१८।२४-२९)। इसी प्रकार के मायामोह के विषय में देखिए पम० (५।३।३४६-३९०, अन्तिम पद्य २४ तीर्थंकरों की ओर संकेत करता है)। सर्ववर्शनसंग्रह (महामहोपाध्याय वासुदेवशास्त्री अभ्यंकर द्वारा सम्पादित, १९२४) में चार्वाकदर्शन के अध्याय में कुछ श्लोक बृहस्पति से उद्धृत हैं, यया--पशुश्चेनिहतः स्वर्ग ज्योतिष्टोमे गमिष्यति । स्वपिता यजमानेन तंत्र कस्मान हिंस्यते ॥ पृ० १३१ देखिए पद्म (५।१३।३७०-३७४) ।
. ९८. भामिता हि मया देवि पशवः शास्त्रकोटिषु । कुलधर्म न जानन्ति वृथा शास्त्राभिमानिनः॥ पशुशास्त्राणि
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