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धर्मशास्त्र का इतिहास - कतिपय पुराण, विशेषतः विष्णु एवं भागवत भक्ति के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक प्रयोगों, उसकी प्रशंसाओं तथा उससे सम्बन्धित कथानकों से परिपूर्ण हैं। स्थानाभाव से हम विस्तार में नहीं जा सकते। कुछेक विशिष्ट बातें यहाँ दे दी जा रही हैं। भागवतपुराण की प्रशंसा में पद्मपुराण में यों आया है-~-'सहस्रों अश्वमेध और सैकड़ों वाज रेय यज्ञ शुक द्वारा कही गयी गाथा के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हो सकते। जो कोई भागवत के आधे श्लोक या चौथाई श्लोक का पाठ करता है वह अश्वमेध एवं राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त करता है। जो मृत्यु के समय शुकशास्त्र (भागवत) सुनता है, गोविन्द उससे प्रसन्न होकर वैकुण्ठ प्रदान करते हैं; विष्णु के नाम लेने से सभी पाप कट जाते हैं, यह स्वयं एक प्रायश्चित्त है, क्योंकि स्मरण करते समय केवल विष्णु ही मन में अवस्थित रहते हैं।' एक अन्य बात है अजामिल की कथा (भागवत ६।१।२० एवं ६।२; पद्म १।३१।१०९ एवं ६।८७।७ आदि) । अजामिल जिसने अपनी ब्राह्मण पत्नी का त्याग किया था और एक दासी को रख लिया था, चरित्र-भ्रष्ट था तथा चोरी एवं जुए के दुर्गुणों से परिपूर्ण था। जब वह ८० वर्ष की आयु में अपनी मरण-सेज से अपने कनिष्ठ पुत्र नारायण को (जो दस दासीपुत्रों में एक था) जोर से पुकारने लगा और स्नेहवश उसी नाम को मन में रखे रहा तो वह पापमुक्त हो गया और कठिन तपःसाध्य स्थिति को प्राप्त हो गया। इस प्रकार की कथाओं से एक विश्वास-सा जग उठा कि मृत्यु के समय अन्तिम विचार अपने अनुरूप नया जीवन प्रदान करता है (अन्ते मतिः सा गतिः)। उपनिषदों में इस अन्तिम विचार का मूल बीज उपस्थित है (छा० उप० ३।१४।१, ८।२।१०, बृ० उप० ४।४।५)। 'मिलिन्द प्रश्न' (एस० बी० ई०, जिल्द ३५, पृ.० १२३-१२४) में अन्तिम विचार के महत्त्व की इस भावना पर प्रश्नोत्तर हुआ है। ऐसा सम्भव है कि केवल एक बार भगवान् के नाम का आह्वान, पश्चात्ताप के उपरान्त श्रद्धापूर्वक केवल एक सत्कर्म तथा भगवान की इच्छा के अनुरूप आत्म-समर्पण अपराध एवं पापमय जीवन के फल को काट दे। अजामिल के जीवन की गाथा का यही नैतिक निष्कर्ष है। किन्तु इससे एक दुर्भावना उत्पन्न हो सकती है कि व्यक्ति जीवन भर दुराचारी रहे, भ्रष्ट रहे तथा हर सम्भव पाप एवं अपराध करता रहे, किन्तु यदि वह मरते समय भगवान् का नाम ले ले तो उसके सभी पाप कट जायेंगे। यह एक भयंकर सिद्धान्त है। गीता (८१५-७) इस पर प्रकाश डालती है-'वह व्यक्ति, जो मुझे मरते समय स्मरण करता है और शरीर त्याग कर इस संसार से चला जाता है, मेरा तत्त्व प्राप्त करता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। जब व्यक्ति मरता है उस समय वह जो कुछ आकार या स्वरूप स्मरण करता है, वह उसी को प्राप्त होता है, क्योंकि वह उसी आकार या प्रतिमा या स्वरूप में सदैव संलग्न था। अतः मुझे सदा स्मरण करो और युद्ध करो; इसमें कोई सन्देह नहीं कि मुझमें अपना मन एवं बुद्धि लगाकर तुम मुझे प्राप्त करोगे।' इस वचन का तात्पर्य यह है (गीता का ऐसा निर्देश है) कि व्यक्ति भगवान् का नाम मरते समय तभी स्मरण कर सकेगा जब वह जीवन भर वैसा करता रहेगा, जब कि वह अपने कर्तव्यों का पालन निष्काम भाव से करता रहेगा। ऐसा अधिकतर नहीं होता और यह एक प्रकार से असम्भव है कि व्यक्ति जीवन भर पाप करता रहे और अन्त में मरते समय भगवान् का नाम लेने लगे। यही बात पुनः कही गयी है (८।१०-१३; १३।३ : यो यच्छ्रद्ध: स एव सः)।
इस सिद्धान्त के रहते हुए भी कि परमात्मा एक है, और यह जानते हुए कि चाहे जिस रूप में हम किसी देवता को पूजें, वह पूजा परमात्मा को ही प्राप्त होती है, वैष्णवों एवं शवों में बड़े भयंकर वाक्-युद्ध होते रहे हैं। उदाहरणार्थ, वराहपुराण (७०।१४ 'नारायणः परो देवः') ने रुद्र द्वारा विष्णु की महत्ता घोषित करायी है, और शैव सिद्धान्तों को, वेदों के बाहर की बातें कह कर निन्दित किया है और ऐसा मत प्रकाशित किया है--'यह अवैदिक मत स्वयं शिव ने विष्णु की प्रार्थना पर लोगों को भ्रम में डालने के लिए प्रवर्तित किया है।' कुछ पुराणों ने ऐसा प्रचार करना आरम्भ किया कि बौद्ध एवं जैन असुर एवं देवों के शत्रु हैं, और वे भगवान् द्वारा जान-बूझकर भ्रमित
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