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भक्ति का प्रभाव-सहिष्णुता, उदारता एवं अत्युक्तियाँ भक्ति के सिद्धान्त ने हिन्दू समाज के सभी दलों को प्रभावित किया और जब पुराणों द्वारा भक्ति का प्रचार बढ़ा तो बौद्ध धर्म से हिन्दू लोग बाहर निकलते गये। अपितु, स्वयं महायानी बौद्ध सम्प्रदाय ने भक्ति सिद्धान्त को अपमा लिया और 'मिलिन्द प्रश्न', 'सद्धर्मपुण्डरीक' जैसे ग्रन्थों में ऐसे वचनों का समावेश हो गया जो गीता से बहुत मिलते-जुलते हैं। गीता में ऐसी आश्चर्यजनक सहिष्णुता एवं संयोजन पाया जाता है जो महान् पैगम्बरों द्वारा संस्थापित अन्य धर्मों में नहीं उपलब्ध होता। गीता (९।२३) में आया है-'यहाँ तक कि वे लोग, जो अन्य देवों के भक्त हैं और उन्हें भक्ति एवं विश्वास के साथ पूजते हैं, (परोक्ष रूप से) मुझे ही भजते हैं, किन्तु अशास्त्रीय विधि से।' भागवतपुराण (१०।४०८-१०) में यही बात बढ़ाकर कही गयी है। शान्तिपर्व (३४१।३६) में भी यही विचार उल्लिखित है.४'जो ब्रह्मा, शिव या अन्य देवताओं की पूजा करते हैं और जिनका आचरण प्रबद्ध है (अन्त में) वे मुझ परम तत्त्व के पास ही आते हैं।' इस सिद्धान्त का स्रोत ऋग्वेद में पाया जाता है, जहाँ यह आया है"--'उसी एक को मुनि लोग कई नामों से कहते हैं; वे उसे अग्नि, यम, मातरिश्वा (वायु) कहते हैं।' हम यहाँ पर भक्ति की विभिन्न शाखाओं, यथा--रामानुज, मध्व, चैतन्य, वल्लभ आदि द्वारा प्रवर्तित शाखाओं का उल्लेख स्थानाभाव से नहीं कर सकेंगे।
पुराणों ने भक्ति के प्रचार में अत्युक्ति भी कर दी है। ब्रह्मपुराण (२१६१८७-८९) में आया है-'मोह में आकर बहुत पाप कर डालने पर भी पाप को हरने वाले हरि के स्मरण से व्यक्ति नरक में नहीं जाता है। ये म्यक्ति जो सदैव जनार्दन का स्मरण करते हैं वे शठता करने पर भी मृत्यूपरान्त सुखमय विष्णुलोक चले जाते हैं। वह व्यषिस भी, जो अत्यन्त क्रोध में आसक्त रहता है, हरि के नाम का स्मरण करने से पापरहित हो जाता है और मुक्तिपद प्राप्त कर लेता है, जैसा कि चेदि देश के राजा ने किया था। वामनपुराण (९४।५८-५९) में आया है कि जो विष्णु का भक्त है उसे बहुत-से मन्त्रों की आवश्यकता नहीं है। 'नमो नारायणाय' नामक मन्त्र सर्वार्थसाधक है। जो विष्णु के लिए मेक्सि रखते हैं, उनकी जय होती है, जिनके हृदय में इन्दीवर श्याम जनार्दन बसते हैं उनकी पराजय का प्रश्न ही नहीं उठता। वामन एवं पद्म का कथन है कि विष्णु के नाम लेने से वैसे ही फल प्राप्त होते हैं जो इस पृथिवी के पवित्र तीर्थों एवं स्थानों में जाने से मिलते हैं।
९३. येप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥ गीता ९।२३; स्वामेवान्ये शिवोक्तेन मार्गेण शिवरूपिणम् । बह्वाचार्यविभेदेन भगवन्समुपासते ।। सर्व एव यजन्ति त्वां सर्वदेवमपेश्वरम् । येऽप्यन्यदेवताभक्ता यद्यप्यग्यषियःप्रभो ॥ ययाद्रिप्रभवा नद्यः पर्जन्यापूरिताः प्रभो। विशन्ति सर्वतः सिन्धं तद्वत्वां गतयोऽन्ततः॥भागवत (१०४०।८-१०)।
९४. ब्रह्माणं शितिकण्ठं च याश्चान्या देवताः स्मृताः। प्रबुद्धचर्याः सेवन्तो मामेवष्यन्ति यत्परम् ॥ शान्ति (३४१३३६)।
९५. एक सविप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ॥ ऋ० (१२१६४१४६)।
९६. चेवि देश का राजा सम्भवतः शिशुपाल था, जिसकी कथा सभापर्व (अध्याय ४३-४६) में भायी है। वह कृष्ण को बहिन का पुत्र था। कृष्ण ने उसके १०० अपराधों को क्षमा कर देने का वचन दिया था और अन्त में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर उसे मार डाला। शिशुपाल की कथा विष्णुपु० (४।१५।१-१७) में भी आयी है और ऐसा उल्लेख है कि शिशुपाल श्री कृष्ण का नाम सदैव लेता रहता था और उन्हें शत्रु के रूप में सदैव स्मरण रखता था, इसी से वह अन्त में भगवान के पास पहुंच गया।
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