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धर्मशास्त्र का इतिहास श्वपाक और म्लेच्छ जातियों के लोग भी, यदि वे हरि के. चरणों की सेवा करते हैं, वन्द्य एवं महाभाग हो जाते हैं'; 'एक श्वपाक भी वैष्णब है यदि उसके अधरों पर हरि का नाम हो, जिसके हृदय में विष्णु विद्यमान हों, और जिसके उदर में विष्णु का नैवेद्य (चढ़ा हुआ प्रसाद) जाता हो।' भागवतपुराण (२।४।१८) में निम्नोक्त वक्तव्य पाया जाता है-'उस प्रभविष्णु को नमस्कार, जिसकी शरण में पहुंचने पर किरात (पर्वतवासी, यथा भील आदि), हूण, अन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन, खस आदि तथा अन्य पापी व्यक्ति शुद्ध हो जाते हैं।'९२ ये केवल वचन मात्र नहीं हैं, प्रत्युत ये कार्यान्वित भी होते थे। मध्यकाल में नारी भक्तिनियाँ हुई हैं, यथा मीराबाई (उत्तरी भारत) तथा आण्डाल (दक्षिणी भारत); रायदास (रैदास), जो चमार थे और रामानन्द के शिष्य थे; अजामिल जैसे पापी भी सन्तों के समान सम्मानित हुए थे। कबीर (एक मुसलमान जुलाहा) एवं तुकाराम जैसे अनपढ़ सन्तों की वाणियाँ कट्टर ब्राह्मणों द्वारा भी बड़े मनोयोग से पढ़ी जाती हैं।
११ वीं शती के उपरान्त जब भारत पश्चिमोत्तर भाग के मुस्लिम आक्रमणों से आक्रान्त हो उठा तो इसके समक्ष एक महान् चुनौती आ उपस्थित हुई। वह चुनौती कई ढंगों से स्वीकार की गयी। पहला ढंग था स्मृतियों के विस्तृत निबन्धों का प्रणयन, जिनमें सबसे प्राचीन उपलब्ध निबन्ध है कृत्यकल्पतरु, जो लक्ष्मीधर (लगभग १११० से ११३० ई०) द्वारा प्रणीत है। लक्ष्मीधर उत्तरी भारत के हैं, और दूसरे प्राचीन निबन्धकार हैं हेमाद्रि (१३वीं शती के तीसरे चरण में), जो दक्षिण भारत में उत्पन्न हुए थे। दूसरा एवं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ढंग था आध्यात्मिक। १३ वीं शती से १७ वीं शती तक अभूतपूर्व आध्यात्मिक पुनरुद्धार की उत्क्रान्तियाँ पनपीं, जिनके फलस्वरूप भारत के सभी भागों में सन्तों एवं रहस्यवादियों का प्रादुर्भाव हुआ, यथा---ज्ञानेश्वर, नामदेव, रामानन्द, कबीर, चैतन्य, दादू (राजस्थान), नानक, वल्लभाचार्य, एकनाथ, तुकाराम, रामदास आदि, जिनके प्रमुख तत्व एक ही थे, यथा परमात्मा एक है, आत्म-शुद्धि, जाति की उच्चता की भर्त्सना, पूजा के आडम्बरों की निन्दा तथा मोक्ष के लिए भगवान् में आत्मसमर्पण। तीसरा ढंग था स्वतन्त्र राज्यों की सृष्टि, यथा--विजयनगर (१३३०-१५६५ ई०), महाराष्ट्र (शिवाजी तथा पेशवाओं के शासन काल में) एवं सिक्खों का पंजाब में राज्य। इस अन्तिम का विवरण हम यहाँ नहीं करेंगे।
९२. किरातहणान्ध्रपुलिन्दपुल्कसा आभीरकका यवनाः खसादयः। येन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रयाः शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः॥भागवत २।४।१८। जब विश्वामित्र के ५० पुत्रों ने अपने पिता द्वारा गोद लिये गये पुत्र शुनश्शेप को अपने बड़े भाई के रूप नहीं स्वीकार किया तो विश्वामित्र ने शाप दिया कि इनकी सन्ताने अन्ध्र होंगी, निम्न जाति की स्थिति वाली होंगी और वे शबर आदि होंगी तया अधिक संख्या में वस्य होंगी--'ताननुव्याजहारान्तान्वः प्रजा भक्षीष्टेति । त एतेऽन्ध्राः पुण्ड्राः शबराः पुलिन्दाः मूतिबा इत्युदन्त्या बहवो भवन्ति वैश्वामित्रा दस्यूना भूयिष्ठाः। ऐ० बा० (७।१८, अध्याय ३६६६)। और देखिए एपि० इण्डि० (जिल्ब ८, पृ०८८), जहां शिवदत्त के पुत्र ईश्वरसेन नामक आभीर राजा के ९३ वर्ष का अभिलेख वणित है। पुल्कस एवं श्वपाक अस्पृश्य तथा अन्त्यज कहे गये हैं। वाजसनेयसंहिता (३०।१६) में किरातों को गुफाओं में रहने वाले कहा गया है। मौसलपर्व (७४४६-६३) में आभीरों को वस्य एवं म्लेच्छ कहा गया है। जब अर्जुन कृष्ण के अन्तर्धान होने के उपरान्त यादव-स्त्रियों को लिये जा रहे थे तो आभीरों ने उन पर पञ्चनद में आक्रमण कर दिया और उन स्त्रियों को हर लिया (मौसलपर्व, ८.१६-१७)। और देखिए विष्णुपुराण (५।३८।१२-२८)। मत्स्य (२७३।१८) ने दस आभीर राजाओं का उल्लेख किया है। खस जातियों में एक परम्परा थी अपने मृत भाई की पत्नी से विवाह कर लेना।
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