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भक्ति के ९ या ११ भेद; निष्काम कर्म एवं शरणागति
४६७ आत्मा या धातु-स्वभाव से जो कुछ करता है उसे सब कुछ नारायण को समर्पित कर देना चाहिए।' यह गीता (९।२७) के समान ही है और इसे दास्य भक्ति कहा जा सकता है; किन्तु अर्जुन की भक्ति सख्य भक्ति है (गीता ४॥३, कृष्ण ने अर्जुन को अपना भक्त एवं मित्र कहा है)। ऐसा प्रकट होता है कि गीता ने भक्त द्वारा जीवन में अपनी स्थिति के अनुरूप कर्तव्य-पालन को भगवान् की पूजा (अर्चन या पूजा) कहा है--'अपने कर्तव्यों के पालन द्वारा उस भगवान् की पूजा से (जहाँ फल की कोई कामना न हो) जिससे यह लोक निकला हुआ है, और जिससे यह लोक परिव्याप्त है, व्यक्ति पूर्णता प्राप्त करता है (केवल पुष्पों के चढ़ाने या नाम के अनुस्मरण से ही नहीं)।' इसी को निष्काम कर्म कहा गया है।
उपर्युक्त निष्कामकर्म को, जो गीता का मुख्य सिद्धान्त है, पुराणों ने स्वीकार किया है। अग्निपुराण (अध्याय ३८१) ने ५८ श्लोकों में गीता का निष्कर्ष उपस्थित किया है जो अधिकांशतः गीता के ही वचन हैं। एक श्लोक के साथ निष्कर्ष का अन्त किया गया है और अन्तिम श्लोक में भक्ति पर बल दिया गया है। गरुडपुराण ने गीता को २८ श्लोकों में रखा है (१।२१०-२३८)। पद्मपुराण (६।१७१-१८८) ने गीता के १८ अध्यायों में प्रत्येक का माहात्म्य उपस्थित किया है (कुल १००५ श्लोकों में)। और देखिए कूर्म (१।३।२१; २७।२८), मार्कण्डेय (९२।१५) एवं भागवत (११।३।४६)।
उपनिषदों का अद्वैत सिद्धान्त (यथा-ईशा० १६; तै० उप० ३।४ एवं ८; बृ. उप० २।४।१४, ४।३।३०-. ३१, ४।५।१५) ज्ञानियों के लिए है। उपनिषद् सर्वसाधारण को कुछ नहीं देतीं, उनसे भगवान्, या परम तत्त्व, मानव के अन्तिम रूप, परमात्म-प्राप्ति के मार्ग के विषय में साधारण लोगों को कुछ नहीं प्राप्त होता और न उनकी समस्याओं का समाधान ही मिलता है। गीता ने सामान्य अथवा साधारण व्यक्ति की समस्याएँ उठायी हैं, इसने निम्न स्तर के लोगों को भी आशा दी है कि उनके जीवन में भी वह परम तत्त्व एवं सत्य स्वरूप समा सकता है, यदि ऐसे लोग अपने दैनिक कर्तव्यों एवं अपनी स्थिति के अनुरूप कर्मों को भगवान् में समर्पित कर दें तो उन्हें मुक्ति मिलेगी। यदि लोग श्रद्धा के साथ भगवान की कृपा पूर्ण शरण में आ जायँ तो मोक्ष-पद की प्राप्ति हो जाय। गीता (९।३०-३२) में उद्घोषणा है-'यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है, तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात् उसने भली भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन, तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता। हे अर्जुन, स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डाल आदि जो कोई भी हों, वे भी मेरी शरण में आकर परम गति को प्राप्त करते हैं।' और देखिए शाण्डिल्यसूत्र (७८)। पुराण उसी स्वर से उद्घोषित करते हैं जिस स्वर में गीता के वचन हैं, बल्कि वे अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट एवं बलशाली हैं। ब्रह्मपुराण ने गीता (९।३२) का अन्वय मात्र दे दिया है--'मेरा भक्त, भले ही वह चाण्डाल हो, किन्तु सत्य श्रद्धा से अपनी कामना की तुष्टि पाता है; अन्यों के विषय में कहने की क्या आवश्यकता है ?' पद्मपुराण (१।५।१० एवं ४।१०।६६) में आया है-'पुल्कस, यहाँ तक कि
. ९०. यतःप्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् । स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः॥ गीता (१८४४६)।
९१. अतःप्रवृत्ति...म्यर्च्य विष्णुं सिद्धि च विन्दति । कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा। ब्रह्माविस्तम्बपर्यन्तं जगत् विष्णं च वेत्ति यः। सिद्धिमाप्नोति भगवद्भक्तो भागवतो ध्रुवम् ॥ अग्निपु० (३८११५६-५८)। कर्माण्यसंकल्पिततत्फलानि संन्यस्य विष्णो परमात्मभूते । अवाप्य तां कर्ममहीमनन्ते तस्मिल्लयं ये त्वमलाः प्रयान्ति ।। विष्णु० (२।३।२५)।
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