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धर्मशास्त्र का इतिहास
है, अविनाशी है तथा बड़ा सुगम है' ( गीता ९ । २ ) । गीता के अनुसार भक्तिमार्ग ज्ञानमार्ग से अपेक्षाकृत
सरल है ।
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भागवत ( ७।५।२३-२४ ) में भक्ति के ९ प्रकार कहे गये हैं - विष्णु के विषय में सुनना, उनका कीर्तन करना (बार-बार नाम लेना ), स्मरण करना, पाद सेवन करना ( विष्णु की मूर्ति की सेवा करना), अर्चन करना, ' ( पूजा करना), वन्दन करना ( नतमस्तक हो प्रणाम करना ), दास्य भाव ग्रहण करना ( अपने को विष्णु का दास समझना), विष्णु को सखा (मित्र) के रूप में मानना एवं आत्मनिवेदन ( अर्थात् उन्हें अपने आपको समर्पित कर देना ) । नारदमक्तिसूत्र (८३) के अनुसार यह ११ प्रकार की है, यथा - गुणमाहात्म्य, रूप, पूजा, स्मरण, दास्य, सख्य, वात्सल्य, कान्त, आत्मनिवेदन, तन्मयता, परम विरह की ११ आसक्तियाँ । वृद्धहारीतस्मृति (८१-८३) ने थोड़े अन्तर के साथ ९ प्रकार किये हैं। ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि ये ९ प्रकार एक ही समय प्रयोजित होते हैं। एक भक्त इनमें से किसी एक का सहारा लेकर सच्चा भक्त हो सकता है और मोक्ष पा सकता है ( शाण्डिल्यसूत्र ७३ ) । गीता ( ७।१६-१७) में आया है - 'उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु एवं ज्ञानी - ऐसे चार प्रकार के भक्त मुझको मजते हैं। उनमें नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है, क्योंकि मुझको तत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है ।' शाण्डिल्य० में आया है कि भक्ति के चार स्वरूप, यथा स्मृति, कीर्तन, कथा ( उनके विषय की कथाएँ कहना) एवं नमस्कार उन लोगों
लिए हैं जो हैं या प्रायश्चित्त करना चाहते हैं | विष्णुपुराण ( २२६ । ३९) में आया है कि कृष्ण का स्मरण सभी प्रायश्चित्तों में श्रेष्ठ है । शाण्डिल्य० में पुनः आया है कि वे व्यक्ति जो महापातकी हैं वे केवल आर्तो वाली भक्ति कर सकते हैं, किन्तु पापमोचन के उपरान्त वे अन्य भक्ति प्रकारों का आश्रय ले सकते हैं।
गीता में नवधा भक्ति के स्पष्ट नाम नहीं आये हैं, किन्तु इनमें अधिकांश कतिपय श्लोकों (यथा गीता ९ । १४, २६, २७) से तथा पुराणों के वचनों से एकत्र किये जा सकते हैं। उदाहरणार्थ, विष्णुपुराण (२/९/३९) में आया है - 'जो मी तपों से पूर्ण एवं दानादि वाले प्रायश्चित्त हैं उनमें कृष्णनामस्मरण सबसे उत्तम है ।' इसी पुराण एक स्थान पर पुनः आया है - 'भक्ति के साथ उनके नाम का अनुसरण पाप विलयन का सर्वोत्तम साधन है, जिस प्रकार अग्नि धातुओं का है। भागवत (११।२।३६ ) में आया है— 'भक्त अपने शरीर, वाणी, मन, इन्द्रियों, बुद्धि या
८८. श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सत्यमात्मनिवेदनम् ।। इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेशवलक्षणा । क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ भागवत ७।५।२३-२४ । प्रह्लाव इसे अपने पिता से कहता है । 'स्मृतिकीर्त्योः कथादेश्चात प्रायश्चित्तभावात् । शाण्डिल्य ७४ ; स्मरणकीर्तनकथा नमस्कारादीनामार्त भक्तौ निवेशः । स्वप्नेश्वर ; महापातकिनां त्वात । शाण्डिल्य ८२; पतनहेतुपापरतानां च पुनरातिभक्तो एवाधिकारः प्रायश्चितवत् तत्पापक्षयस्य सर्वापेक्षयाम्यहतत्वात् ।.. . तदपगमे तु सुतरामधिकारसिद्धिः । देखिए भक्तिप्रकाश (वीरमित्रोदय का एक अंश, पृ० ३० -१२८) जहाँ नवधा भक्ति की व्याख्या की गयी है । तान्त्रिकों ने भी भक्ति के इन नौ रूपों को अपनाया है, जैसा कि रुद्रयामल (२७११०३-१०४) में आया है - 'मननं कीर्तनं ध्यानं स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं निवेदनम् । एतद्भक्तिप्रसादेन जीवन्मुक्तस्तु साधकः ॥'
८९. प्रायश्चित्तान्यशेषाणि तपःकर्मात्मिकानि वै । यानि तेषामशेषाणां कृष्णानुस्मरणं परम् ॥ विष्णु० २।६।३९, पद्म० ६।७२/१३ यन्नामकीर्तन भक्त्या विलायनमनुत्तम् । मैत्रेयाशेषपापानां धातूनामिव पावकः ॥ विष्णुपु० ( स्वप्नेश्वर द्वारा शाण्डिल्यभक्तिसूत्र ७४ की व्याख्या में उद्धृत ) ।
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