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________________ वह जो भग, भगवान्, भागवत की परिभाषा; भक्तिमार्ग एवं ज्ञानमार्ग ४६५ ने अपने को भागवत कहा है। कुछ प्रारम्भिक लेखों में, यथा-सिंहवर्मा के पीकर दान-पत्र (एपि० इण्डि०, जिल्द ७, पृ० १६१) एवं गुप्त अभिलेख संख्या ८ (पृ० २७) में सिंहवर्मा एवं समुद्रगुप्त का पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय परम भागवत' कहे गये हैं। ब्रह्मपुराण (१९०।२०) में अक्रूर को महाभागवत कहा गया है। पद्मपुराण (६।२८०१२७) ने 'महाभागवत' की परिभाषा की है। प्राचीन ग्रन्थों में तीन मार्ग उल्लिखित हैं, यथा-कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग एवं ज्ञानमार्ग। यहाँ पर थोड़ा भक्ति एवं ज्ञान के मार्गों पर लिखना आवश्यक-सा है। ये दोनों मार्ग हमें एक ही लक्ष्य अर्थात् मोक्ष की ओर ले जाते हैं। किन्तु दोनों की पहुंच के ढंग भिन्न हैं। ज्ञानमार्ग (या अव्यक्तोपासना) में ब्रह्म के, परमात्मा या निर्गुण के रूप में केबल पुस्तकीय ज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती; उसके लिए 'ब्राह्मी स्थिति' परमावश्यक है (गीता २०७२)। यह लम्बे प्रयोग एवं प्रयास से ही सम्भव है (गीता २१५५ आदि)। ज्ञान मार्ग में व्यक्ति जो कुछ करता है वह ब्रह्मार्पण होता है (गीता ४११८-२४)। भक्तिमार्ग में भक्त ईश्वर के प्रसाद के लिए आत्म-समर्पण कर दे कुछ करता है वह अपने आराध्य देव को समर्पित कर देता है (यह सगुण एवं व्यक्त उपासना है)। गीता (१२॥१) में अर्जुन ने भगवान् से प्रश्न किया है-'जो अनन्यप्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार (इस प्रकार) से निरन्तर आपके भजनध्यान में रहकर आपको (सगुण परमेश्वर को), और दूसरे लोग जो केवल अविनाशी एवं निराकार (अव्यक्त) ब्रह्म को ही अति श्रेष्ठ भाव से भजते हैं, उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं ?' इसका उत्तर गीता (१२।२-७) में इस प्रकार है-'मुझमें मन लगाकर निरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ (सगुण रूप परमेश्वर) को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं। किन्तु जो व्यक्ति इन्द्रियों के समुदाय को भली भाँति वश में करके सर्वव्यापी, अनिर्वचनीय (अकथनीय), सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी (सच्चिदानन्दघन ब्रह्म) को निरन्तर अमित भाव से (समबुद्धि से) भजते हैं, वे सभी प्राणियों में रत तथा सब में समान भाव वाले मुझको ही प्राप्त होते हैं। उनके विषय में, जिनके मन अव्यक्त में लगे रहते हैं, क्लेश अधिकतर है (अर्थात् निराकार ब्रह्म में आसक्त रहने वाले व्यक्तियों के साधन में परिश्रम विशेष है), क्योंकि अव्यक्त लक्ष्य की प्राप्ति देहधारी जीवों द्वारा कठिनता से होती है। किन्तु वे व्यक्ति जो सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें समर्पित कर देते हैं और मुझको ही सर्वोत्तम लक्ष्य समझ कर भजते रहते हैं, हे अर्जुन ! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूपी संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हैं।' नवें अध्याय में भक्तिमार्ग के विषय में यों कथित है-'यह विद्याओं में प्रमुख है, रहस्यों (मोपचीयों) में प्रमुख है, यह अति पवित्र है प्रत्यक्ष पहायक है, धर्मयुक्त ८७. तापाविपंचसंस्कारी नवेज्याकर्मकारकः। अर्थपंचकवि विप्रो सामानामतः॥पम० (६।२८० २७), ताप आदिके लिए देखिए अपर इसी अध्याय की पाद-टिप्पणी व प्रकारको पूवा के लिए देखिए आगे वाली टिप्पणी। जिन पांच शीर्षकों के अन्तर्गत रामानुज सम्प्रदाय के सिद्धान्त विवेक्षिा है ये हैं-(१) जीव, (२) ईश्वर, (३) उपाय (ईश्वर तक पहुंचने का मार्य), (४) फल या पुलवा (नानपाचीवन के सत्य), (५) विरोघिनः (भगवत्प्राप्ति के मार्ग में विरोधीगल अर्थात् बाषाएँ)। नारायण-मृत का नमक अन्य में इन पांचों शीर्षकों के ५-५ विभाग भी लिये गये हैं। देखिए ग० आर०बी० भकारमा प्रोसीबिन्स आव दि इण्टरनेशनल कांग्रेस आब बोसिम्वलिस्ट्स', वियेना, १८८६ मार्य विभाग, १० १०१-११०, जहाँ अर्थपंचक का निष्कर्ष दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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