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धर्मशास्त्र का इमिहास
... कुछ पुराणों में 'वासुदेव' शब्द 'वसुदेव' से व्युत्पन्न न मान कर (वसुदेव के पुत्र को न मान कर) 'वस्' (अर्थात बास करना या रहना) धातु से निष्पन्न माना गया है। ५ 'वासुदेव इसीलिए कहा जाता है कि सभी जीव परमात्मा में निवास करते हैं और वासुदेव सभी जीवों में सब के आत्मा के रूप में निवास करते हैं।' मिलाइए गीता (९।२९): 'मैं सभी प्राणियों के लिए समान हूँ; न तो कोई मेरा अप्रिय है और न कोई प्रिय; किन्तु जो मुझे श्रद्धा के साथ भजते हैं वे मुझमें वास करते हैं और मैं भी उनमें वास करता हूँ।'
भगवत्' शब्द की व्याख्या भी आवश्यक है। यह शब्द सामान्यतया वासुदेव के लिए प्रयुक्त होता था। विष्णुपुराण (६।५।७४ एवं ७५) में आया है-'भग शब्द समाहार रूप से ६ गुणों के लिए व्यवहृत हुआ है, यथाऐश्वर्य, वीर्य (पुरुषार्थ), यश, शुभता, ज्ञान एवं सांसारिक वस्तुओं के प्रति वैराग्य (उदासीनता) की पूर्णता। यह महान भगवान शब्द परमब्रह्म वासूदेव के लिए प्रयक्त है किसी अन्य के लिए नहीं।८६ विष्णपराण (६५७८-७९) ने पनः कहा है कि 'भगवत' शब्द अन्य लोगों के लिए गौण रूप में प्रयक्त हो सकता है. यदि उनमें विशेष गण हों. यथा-“वह व्यक्ति 'भगवान्' कहा जा सकता है, जो (लोक की) उत्पत्ति एवं प्रलय, जीवों की प्रगति (फल) एवं गति (अन्तिम नियति) का ज्ञान रखता हो और यह जानता हो कि विद्या एवं अविद्या क्या है।"
. भागवत वह है, जो भगवत् (अर्थात् वासुदेव) की पूजा करता है। यह एक अति पुरातन शब्द है। ईसा पूर्व दूसरी शती के बेसनगर स्तम्भ के लेख में भागवत शब्द आया है, वहाँ अन्तलिकित (ऐण्टियाल्काइडिस) के दूत एवं तक्षशिला के यूनानी हेलियोदोर (हेलियोडोरस) ने अपने को भागवत (वासुदेव का भक्त) कहा है (देखिए प्रो० ए० के० नारायण कृत 'इण्डो-ग्रीक्स', १९५७)। ऐसा प्रतीत होता है कि 'भगवान्' विशेषण शिव के लिए भी प्रयुक्त होता था। श्वेताश्वतरोपनिषद् (३।११) ने शिव को 'भगवान्' (सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात्सर्वगतः शिवः) कहा है। पतञ्जलि ने अपने भाष्य (पाणिनि, ५।२।७६) में 'शिव-भागवत' (शिवो भगवान् भक्तिरस्य शिवभागवतः, अर्थात् वह मक्त जो अपने साथ शिव के आयुध त्रिशूल को लेकर चलता है) लिखा है। चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) में नगरी नामक स्थान के पास घोसुण्डी के संस्कृत प्रस्तराभिलेख (एपि० इण्डि०, जिल्द १६, पृ० २५-२७ एवं इण्डि० ऐण्टी०, जिल्द ६१, पृ० २०३-२०५) में संकर्षण एवं वासुदेव को भगवान् कहा गया है और दोनों को सर्वेश्वर माना गया है (लगभग ई० पू० दूसरी शती), किन्तु बेसनगर-लेख में केवल 'वासुदेव' आया है और हेलियोदोर
८५. सर्वाणि तत्र भूतानि वसन्ति परमात्मनि । भूतेषु च स सर्वात्मा वासुदेवस्ततः स्मृतः॥ विष्णुपु० (६।५।८०), ब्रह्मपु० (२३३॥६८, यहाँ निवसन्ति परात्मनि' भाया है)। एक अन्य श्लोक है-'भूतेषु वसते योन्तर्वसन्त्यत्र च तानि यत् । पाता विधाता जगतां वासुदेवस्ततः प्रभुः॥ विष्णुपु० (६।५।८२), ब्रह्मपु० (२३३१७०, किन्तु यहाँ मह आया है कि इसमें वही कथन है जो प्रजापति ने महान् ऋषियों को बताया)। विष्णुपु० (१।२।१२-१३) में माया है-'सर्वत्रासौ समस्तं च वसत्यत्रेति पै यतः। ततः स वासुदेवेति विद्वद्भिः परिपठ्यते ॥'
८६. ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः भियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चव पणां भग तीरणा॥ एवमेष महाञ्छन्दो मैत्रेय भगवानिति। परमब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः॥ विष्णुपु० (६।५७४ एवं ७६)। पवहारीतस्मृति (६।१६४-१६५) में आया है-'ऐश्वयंच तथा वीर तेजः शक्तिरनुत्तमा। ज्ञान बलं यदेतेषां षण्णां भग इतीरितः। एभिर्गुणः प्रपूर्णो यः स एव भगवान् हरिः॥ शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र (२।२।४४) के भाष्य में व्यूहों के विषय में कहा है--ईश्वरा एवैते सर्वे ज्ञानेश्वर्यशक्तिबलवीर्यतेजोभिरेश्वरधर्मरन्विता अभ्युपगम्यन्ते।' शंकराचार्य ने सम्भवतः विष्णुपु० (६।५।७८-७९) का अनुसरण किया है।
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