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________________ प्रपत्ति एवं भक्ति; चतुर्व्यूहवाद ४६३ भक्ति से भगवान् का 'प्रसाद' (अनुग्रह या कृपा ) प्राप्त होता है जिससे भक्त मोक्ष प्राप्त करता है । " गीता (१८ | ५६, ५८, ६२) में आया है - 'वह व्यक्ति, जो यद्यपि सदैव कर्म करता रहता है, किन्तु मुझ पर ही पूर्णरूपेण निर्भर रहता है, मेरे अनुग्रह से अक्षय एवं अमर स्थान प्राप्त करता है; यदि तुम मुझ पर अपना मन केन्द्रित करो, तुम मेरी कृपा से सभी कठिनाइयों को पार कर जाओगे, तुम भगवान् की शरण में सम्पूर्ण हृदय से जाओ, हे अर्जुन, उसी की कृपा से परम शान्ति एवं अमर स्थान पाओगे ।' विष्णुपुराण" में भगवान् ने प्रह्लाद से कहा है – 'तुम्हारा मन मुझमें निश्चल एवं भक्तिपूर्वक अवस्थित है, तुम मेरे प्रसाद ( कृपा या अनुग्रह ) से निर्वाण प्राप्त करोगे ।' भगवान् के प्रसाद की चर्चा कठोपनिषद् एवं श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी है 'छोटे-से-छोटा एवं बड़े-से-बड़ा आत्मा समी जीवों के हृदय में निहित है; वह व्यक्ति जो अऋतु ( बिना किसी इच्छा का है) एवं वीत-शोक ( शोकरहित ) है, सृष्टिकर्ता की कृपा से आत्मा की महत्ता को देखता है।' गीता एवं नारायणीय उपाख्यान की बातों में बड़ा अन्तर है। गीता में, यद्यपि परमात्मा को वासुदेव कहा गया है", किन्तु चार व्यूहों वाला सिद्धान्त, जो कि नारायणीय की विशेषता है, नहीं पाया जाता। इतना ही नहीं, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध जैसे नाम भी गीता में नहीं आते। प्रस्तुत लेखक मत से गीता नारायणीय उपा ख्यान से पुरानी है, क्योंकि इसमें भक्ति का सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित है, जब कि नारायणीय में पांचरात्र वाला सिद्धान्त कई भक्ति-शाखाओं में से एक है। नारायणीय से पता चलता है कि गीता का प्रतिपादन पहले हो चुका था और नारद द्वारा श्वेतद्वीप से लाया गया ज्ञान वही है जो हरिगीता (अध्याय ३४६ १०- ११, ३४८।५३-५४ ) में उद्घोषित है । शान्ति० ( ३४८।५५ -५७ ) में उल्लिखित है कि केवल एक व्यूह था, या दो, तीन या चार थे तथा एकान्ती लोग अहिंसा पर बहुत बल देते थे। वासुदेव की पूजा पाणिनि से प्राचीन है, क्योंकि पाणिनि ने 'वासुदेवक' शब्द की रचना का उल्लेख किया है और उसका अर्थ किया है, 'वह, जिसकी पूजा का आधार वासुदेव हों (पाणिनि ४१३९५ एवं ९८, 'मक्तिः ' ।... .'वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन् ।' वासुदेवः भक्तिः सेव्यः यस्य स वासुदेवकः) । देखिए डॉ० भण्डारकर का ग्रन्थ 'वैष्णविज्म, शैविज्म आदि' (वाक्य-समूह २ १०, जिल्द ४, संगृहीत ग्रन्थ) जहाँ वासुदेव पूजा की प्राचीनता के विषय में विवेचन है । पाञ्चरात्र के विषय में धर्मशास्त्र के मध्यकालीन लेखकों की सामान्य धारणा का प्रतिनिधित्व पारिजात नामक ग्रन्थ में है, जो कृत्यरत्नाकर में उद्धृत है और उसमें आया है कि पाञ्चरात्र एवं पाशुपत शास्त्र तभी तक प्रामाणिक हैं जब तक वे वेदों के विरोध में नहीं जाते। यही दृष्टिकोण सूतसंहिता में भी पाया जाता है, जिस पर प्रसिद्ध माघवाचार्य ने एक टीका लिखी है। ८१. भक्तिप्रपत्तियां प्रसन्न ईश्वर एव मोक्षं ददाति । अतस्तयोरेव मोक्षोपायत्वम् । यतीन्द्रमतदीपिका ( १०६४) । ८२. यथा ते निश्चल घेतो मयि भक्तिसमन्वितम् । तथा त्वं मत्प्रसादेन निर्वाणं परमाप्स्यसि ॥ विष्णुपुराणे ( ११२०/२८ ) । ' ८३. अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् । तमऋतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसावाद महिमानमात्मनः ॥ कठोप० (२।२०), श्वेताश्व० (३३२०, जहाँ आत्मा गुहायां निहितोस्य जन्तोः, अऋतुम्, महियानमीशम् का पाठ आया है) । ८४. बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ गीता ( ७१९ ) ; बृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि । गीता (१०।३७) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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