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________________ अध्याय ४ पृथक्-पृथक् व्रत : चैत्र प्रतिपदा, रामनवमी, अक्षयतृतीया, परशुराम जयन्ती, दशहरा, सावित्री व्रत महाभारत में व्रत के आरम्भ के विषय में आया है' - 'जलपूर्ण ताम्र पात्र को हाथ में लेकर उत्तराभिमुख होकर उपवास का या जो भी व्रत धारण करने की बात मन में उठे उसका संकल्प करना चाहिए।' देवल (कल्प ०. व्रत, पृ० ४; स० प्र०, कृ० २०, पृ० ५४ ) में आया है -- ( गत रात्रि में ) बिना भोजन किये, स्नान करके, आचमन करके, सूर्य देवता तथा अन्य देवों के समक्ष घोषणा करके व्रत करना चाहिए । वराह० ( ३९ ३२; का० नि० २६८; व्र० क्रि० कौ०, पृ० ६० - ६१; ति० त०, पृ० ११० और देखिए नारदीय० ११२३३१५, जहाँ समान श्लोक आया है) में इस प्रकार का संकल्प है -- एकादशी को निराहार रहकर मैं दूसरे दिन खाऊँगा, हे पुण्डरीकाक्ष (विष्णु), हे अच्युत, आप मेरे आश्रय बनें ।' उपवास या व्रत के लिए संकल्प प्रातः करना चाहिए। दिन का पहला पाँचवाँ भाग, जो तीन घटिकाओं का होता है, प्रातः कहलाता है । जब तिथि प्रातःकाल नहीं आरम्भ होती, प्रत्युत अपराह्न में आरम्भ होती है, तब मी संकल्प प्रातःकाल ही किया जाता है । यह तब किया जाता है जब कि व्रत उसी तिथि को किया जाने वाला होता है, भले ही वह विद्धा हो । जब संकल्प नहीं किया जाता तो व्यक्ति को व्रत का फल बहुत कम होता है और आधा पुण्य समाप्त हो जाता है। अब हम विभिन्न तिथियों को किये जाने वाले पृथक्-पृथक् व्रतों का विवेचन करेंगे। सर्वप्रथम प्रतिपक्षव्रत पर प्रकाश डालेंगे । हम आगे के प्रकरण में यह लिखेंगे कि प्राचीन एवं माध्यमिक कालों में किस प्रकार वर्षारम्भ करने वाले मास विभिन्न देशों में विभिन्न थे । यहाँ चैत्र की प्रतिपदा से आरम्भ करेंगे और मास का अमावास्या ( अमान्त ) से अन्त समझेंगे और चैत्र से आरम्भ कर प्रत्येक मास एवं उसकी तिथियों में किये जाने वाले व्रतों एवं उत्सवों का उल्लेख करेंगे। शेष का विवरण व्रतों की सूची में उपस्थित किया जायगा । १. गृहीत्वादुम्बरं पात्रं वारिपूर्णमुदमुखः । उपधासं तु गृह्णीयाद्वा संकल्पयेद् बुधः ॥ देवतास्तस्य तुष्यन्ति कामिकं तस्य सिध्यति । अन्यथा तु वृथा मर्त्याः क्लिश्यन्ति स्वल्पबुद्धयः ॥ शान्ति० ( कालविवेक, पृ० ४५६ कल्पतरु, व्रत, पृ० ४; कृ० र०, पृ० ५४, व० क्रि० कौ०, पृ० ६१ में उद्धृत), अनुशासनपर्व ( १२६।२० ) में यही बात कुछ शब्द-अन्तरों के साथ आयी है । और देखिए ति० त० ( पृ० ११० ) । २. संकल्प करणे फलहानिमाह भविष्यपुराणे । संकल्पेन विना राजन् यत्किंचित्कुरुते नरः । फलं चाल्पाल्पकं तस्य धर्मस्यार्धक्षयो भवेत् ॥ कृत्यकल्प ० ( पृ० ४२४) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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