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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास श्र वेदान्तसूत्र में भागवत एवं पांचरात्र पद्धति के विषय में चार सूत्र हैं। २ महान् आचार्य अपनी व्याख्या में एकमत नहीं हैं। शंकर कहते हैं कि ये सभी चार सूत्र भागवतों के सिद्धान्त का खण्डन कर देते हैं। रामानुज का कथन है कि प्रथम दो सूत्र भागवत सिद्धान्त का खण्डन कर देते हैं किन्तु अन्तिम दो नहीं । शंकराचार्य ने इसे ' स्पष्ट किया है कि भागवतों के ये सिद्धान्त कि परम देव वासुदेव परम सत्य हैं, उनके चार रूप हैं, तथा वासुदेव की पूजा उनके स्वरूप का एकाग्र चित्त से ध्यान करने में है, आपत्तिजनक नहीं हैं; जो सिद्धान्त खण्डित होने योग्य है वह है भागवतों द्वारा कहा जाने वाला, संकर्षण नामक आत्मा की वासुदेव से उत्पत्ति का सिद्धान्त और यह कि प्रद्युम्न ( मन ) संकर्षण से उदित होता है तथा अनिरुद्ध (अहंकार) प्रद्युम्न से। शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्र (२|२| ४५) में जो कहा है उससे प्रकट होता है कि उनके समय में शाण्डिल्य को लोग भागवत या पांचरात्रशास्त्र का ४५८ सिद्धान्त पाँच रातों तक चार मुनियों, यथा-- सनत्कुमार, सनक, सनन्दन एवं सनातन को सिखाया; (३) इस सम्प्रदाय ने पाँच शिक्षाओं, यथा--- सांख्य, योग, पाशुपत, बौद्ध एवं आर्हत को काला कर दिया (रात्रि काली होती है); (४) यह ( पाञ्चरात्र) पाँच स्वरूपों, यथा -- पर, व्यूह, विभव (अर्थात् अवतार), अन्तर्यामी एवं अर्धा ( प्रतिमा - मूर्तियों) की शिक्षा देता है; (५) यह वैष्णवों के पांच कर्तव्यों, यथा--ताप ( बाहु एवं अन्य अंगों पर तप्त- मुद्रा से चिह्न या वाग लगाना), ), पुण्ड्र ( किसी रंगीली वस्तु से मस्तक पर बनी खड़ी रेखाएँ), नाम ( वासुदेवीय नाम रखना), मन्त्र ( यथा ओं नमो नारायणाय) एवं याग ( वासुदेव की मूर्तियों की पूजा) का विश्लेषण करता है। आल्वार साहित्य ने पंचषा प्रकृति ( यथा पर एवं अन्य) का उल्लेख किया है। देखिए के० सी० वरदाचारी का लेख 'सम कन्ट्रीव्यूशन्स आव अल्वार्स टु दि फिलॉसाफी आव भक्ति' (रजतजयन्ती खण्ड, बी० ओ० आर० आई०, पृ० ६२१) । परमसंहिता ( १।३९-४०) का कथन है क पाँच तत्त्व, पांच तन्मात्राएँ, अहंकार, बुद्धि एवं अव्यक्त (सांख्य के पाँच तत्त्व) मानो पुरुष की रातें हैं, अतः यह शास्त्र ( जो इन पाँचों से मुक्त होने का उपाय बताता है) पाञ्चरात्र कहलाता है । ७२. वेदान्तसूत्र ( २१२।४२-४५ ) में चार सूत्र हैं- "उत्पत्त्यसम्भवात्, न च कर्तुः करणम्, विज्ञानादिभावे वा तदप्रतिषेधः, विप्रतिषेधाच्च ।” यद्यपि रामानुज ने इन चारों में अन्तिम दो पर अपनी टीका की है और बहुत बढ़ा-चढ़ा कर अपनी बात कही है और तीन ऐसी उक्तियाँ उद्धृत की हैं जिन्हें पाञ्चरात्र कहा जा सकता है, तथापि वे अपने श्रीभाष्य में या अपने वेदार्थसंग्रह में यह नहीं व्यक्त करते कि वे सात्वत हैं या पाञ्चरात्र । ७३. वेदविप्रतिषेधश्च भवति । चतुर्षु वेदेषु परं श्रेयोऽलब्ध्वा शाण्डिल्य इदं शास्त्रमधिगतवानित्याविवेदनिन्दादर्शनात् । शांकरभाष्य ( वे० सू० २।२।४५ ) । शंकराचार्य 'तत्र भागवता मन्यन्ते' से आरम्भ करते हैं (ब्रह्मसूत्र २०२४२) तथा पुनः कहते हैं (२।२।४४ ) : न च पञ्चरात्रसिद्धान्तिभिर्वासुदेवादिष्वेकस्मिन् सर्वेषु वा ज्ञानेश्वर्यादितारतम्यकृतः कश्चिद् भेदोभ्युपगम्यते ।' यह द्रष्टव्य है कि शान्तिपर्व में पाञ्चरात्र को सात्वतधर्म ( ३४८ ३४ एवं ८४ ) कहा गया है। बाण ने अपने हर्षचरित (आठवाँ उच्छ्वास) में महान आचार्य दिवाकरमित्र के पास आये हुए विभिन्न धर्मो एवं दर्शनों के विभिन्न सिद्धान्तों के मानने वालों में भागवतों एवं पाञ्चरात्रिकों का भी उल्लेख किया है -- 'विटपच्छायासु निषण्णैः भागवतैर्वणिभिः केशलुञ्चनैः कापिलैजैन लोकायतिकैः पौराणिकैः साप्ततन्तवैः शैवः शाब्दः पाञ्चरात्रिकैरन्यैश्चात्र स्वसिद्धान्ताञ् शृण्वद्भिः आदि ।' सम्भवतः बाण ने भागवत को सामान्य भक्ति-सम्प्रदाय के रूप में रखा है और पाञ्चरात्र को भागवत सम्प्रदाय की विभिन्न शाखाओं में एक शाखा के रूप में माना है, जिसकी एक विशेषता थी कि वह चार व्यूहों वाला सिद्धान्त मानता था । यह 'ब्राह्मणश्रमणन्याय' के समान है। वृद्धहारीतस्मृति ( ११।१८१-१९२ ) में आया है कि शाण्डिल्य ने अवैदिक विधि से विष्णु की पूजा करने for a ग्रंथ का प्रणयन किया, जिससे विष्णु ने उन्हें नरक में पड़ जाने का शाप दिया, किन्तु जब शाण्डिल्य उनसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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