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भक्तिमार्ग के उपास्य देव; नव्य-प्राचीन भक्तिग्रन्थ प्रवर्तक मानते थे, क्योंकि वे चारों वेदों में परम कल्याण की बात नहीं पा सकते थे। द्रोणपर्व (२९।२६-२९) में परमात्मा की लोक-कल्याणकारी चार मूर्तियों के विषय में एक अन्य एवं भिन्न निर्देश है, यथा-एक मूर्ति इस पृथिवी पर तप करती है, दूसरी इस लोक के अच्छे एवं बुरे कर्मों पर एक आँख रखती है, तीसरी इस लोक में मानव रूप में आती है और मानव के समान कार्य करती है, और चौथी एक सहस्र वर्षों तक सोती रहती है और जब जागती है तो योग्य लोगों को वरदान देती है।
यह द्रष्टव्य है कि महाभारत में भी नारद का नाम पांचरात्र से सम्बन्धित है। ऐसा आया है--'यह रहस्यमय सिद्धान्त जो चारों वेदों से समन्वित है, जिसमें सांख्य एवं योग के कल्याणकारी फल हैं और जो पांचरात्र के नाम से विख्यात है, सर्वप्रथम नारायण के अधरों से प्रस्फुटित हुआ और फिर नारद द्वारा सुनाया गया।' (शान्तिपर्व ३३९।१११-११२)।
भक्ति सम्प्रदाय के अन्य बड़े समर्थक हैं भगवद्गीता (जो नारायणीय उपाख्यान ३४८१८ में स्पष्ट रूप से घोषित है), भागवतपुराण एवं विष्णुपुराण। गीता में भक्ति एवं भक्त शब्द कई बार आये हैं। यहां यह कह देना आवश्यक है कि तथाकथित नारदमक्तिसूत्र, नारद-पांचरात्र, शाण्डिल्य-भक्तिसूत्र तथा अन्य पांचरात्र-संहिताएँ जो प्रकाशित हैं, गीता से पश्चात्कालीन हैं। अग्नि० (३९।१-५) में पांचरात्र पर प्रणीत २५ ग्रन्थों का उल्लेख है। महेश्वरतन्त्र ने भी विष्णु द्वारा प्रवर्तित २५ पांचरात्र तन्त्रों का वर्णन किया है और उनकी भर्त्सना की है और कहा है कि वे सब सत्य का प्रतिपादन नहीं करते (२६।१६)।
भक्ति के प्रतिपादन पर विशाल साहित्य है। थोड़े-से संस्कृत के ग्रन्थों, उनके अनुवादों एवं कुछ अंग्रेज़ी के ग्रन्थों का यहाँ उल्लेख होगा। बर्थ, हाप्किंस, कीथ, डा० आर० जी० भण्डारकर आदि ने श्री कृष्ण के स्वरूप के विषय में विभिन्न सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं कि वे उस विष्णु के स्वरूप क्योंकर हैं जो ऋग्वेद में सूर्य का एक अन्य रूप है, और आगे चलकर ब्राह्मणकाल में जो सबसे बड़ा देवता हो गया (यथा-ऐत० ब्रा० 'अग्नि देवानां अवमः, विष्णुः परमः) तथा यज्ञ का स्वरूप माना गया (यज्ञो वै विष्णु:)। जब पाण्डवों के मित्र कृष्ण परम देव मान लिये गये तो गीता में पूर्ण अवतारों के सिद्धान्त की अभिव्यक्ति हो गयी। भक्ति-सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ये हैं-शान्तिपर्व का नारायणीय उपाख्यान (अध्याय ३२२-३५१, चित्रशाला संस्करण एवं ३२२-३३९ आलोचनात्मक संस्करण); भगवद्गीता; कतिपय पुराण, जिनमें विष्णु एवं भागवत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं; शाण्डिल्य का भक्तिसूत्र, स्वप्नेश्वर
दया की प्रार्थना करते हुए उनके चरणों में गिर पड़े तो वे प्रसन्न हो उठे और नरक-वास के शाप की अवधि को कम कर दिया।
७४. यह द्रष्टव्य है कि रामानुज (जन्म, शक संवत् १०४९, ई० ११२७) ने उस भागवत को ब्रह्मसूत्र के अपने भाष्य में कहीं भी उक्त नहीं किया है, जो वल्लभ एवं चैतन्य तथा उनके शिष्यों जैसे मध्यकालीन वैष्णवों के लिए सर्वोत्तम एवं एक मात्र प्रमाण था। किन्तु उन्होंने विष्णुपुराण से एक सौ से अधिक श्लोक उद्धृत किये हैं। वास्तव में वेदार्थसंग्रह में रामानुज का कथन है कि जिस प्रकार श्रुतियों में नारायण का अनुवाक (विभाग) परब्रह्म के विशिष्ट स्वरूप का उद्घाटन करता है, उसी प्रकार विष्णुपुराण परब्रह्म के विशेष प्रदर्शन में प्रवृत्त है तथा अन्य पुराणों की व्याख्या इस प्रकार की जानी चाहिए कि वे इसके विरोध में न हों (यया सर्वासु श्रुतिषु केवलं परब्रह्मस्वरूपविशेषप्रदर्शनायव प्रवृत्तो नारायणानुवाकस्तथेदं वैष्णवं च पुराणं...परब्रह्मस्वरूपविशेषनिर्णयायव प्रवृत्तम् । अन्यानि सर्वाणि पुराणान्येतदविरोधेन नेयानि । वेदार्थसंग्रह, वाक्य-समूह ११०-१११, पृ० १४१-१४२
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