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________________ भक्ति-मार्ग-पाञ्चरात्र मत की प्राचीनता किन्तु भक्ति सम्प्रदाय के आरम्भिक उल्लेख शान्तिपर्व के नारायणीय उपाख्यान (चित्रशाला संस्करण, अध्याय ३३५-३५१) एवं भगवद्गीता में पाये जाते हैं। मेगस्थनीज़ का कथन है कि हेराक्लीस (हरिकृष्ण) की पूजा सोसेन्वाय (शौरसेनों) द्वारा जोबरेस (यमुना) के तटों पर होती थी और उसकी दो नगरियां थीं-मेथोरा (मथुरा) एवं क्लेइस्वोरा (कृष्णपुर?) । नारायणीय० (३३५।१७-२४) में ऐसा आया है कि राजा उपरिचर वसु नारायण के भक्त थे, उन्होंने सूर्य द्वारा घोषित सात्वत नियमों के अनुसार देवेश की पूजा की, उन्होंने यह सोचकर अपने राज्य, सम्पत्ति, पत्नी एवं घोड़े भगवान् के लिए समर्पित कर दिये कि ये सभी भगवान् के हैं, और सात्वत नियमों के अनुसार उन्होंने यज्ञिय कृत्य किये। शान्तिपर्व में सात्वत एवं पांचरात्र की पहचान की गयी है और यह कहा गया है कि 'चित्रशिखण्डी' (जिनकी शिखाएँ चमकदार या विचित्र थीं) नामक सात ऋषियों (मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु एवं वसिष्ठ) ने (पंचरात्र) शास्त्र घोषित किया और नारायण ने उनसे कहा कि यह शास्त्र लोक में प्रामाणिक होगा और राजा वसु बृहस्पति से (जिन्हें यह सात ऋषियों द्वारा क्रमशः प्राप्त होगा) इसे सीखेंगे। शान्तिपर्व के अध्याय ३३६ में ऐसा आया है कि क्षीरसागर के उत्तर में श्वेतद्वीप नामक राज्य था, जहाँ नारायण के मक्त रहते थे, जो 'एकान्ती' कहे जाते थे और पंचरात्र एकान्तधर्म कहा जाता था। पंचरात्र सम्प्रदाय का एक विचित्र सिद्धान्त है जो चार व्यहों (मूर्तियों या आकारों) वाला होता है, यथा-परम व्यक्ति वासुदेव हैं, प्रत्येक आत्मा संकर्षण है, प्रद्युम्न मन है जो संकर्षण से उत्पन्न होता है तथा अनिरुद्ध अहंकार है जो प्रद्युम्न से उत्पन्न होता है। यह वही वासुदेव के चार रूपों वाला (जिनमें से प्रत्येक अपने पूर्व से निकलता है) सिद्धान्त है, जिसका खण्डन, शंकराचार्य के मत से, ब्रह्मसूत्र (२।२।४२-४५) में हुआ है। शान्तिपर्व (३४८1८) ने स्पष्ट रूप से अर्जुन के लिए उपदिष्ट गीता की ओर निर्देश किया है। शान्ति० (३४९।६२) में ऐसा उल्लिखित है कि सांख्य, योग, पांचरात्र, वेद एवं पाशुपत ऐसी पांच विद्याएँ हैं जिनका दृष्टिकोण एक-दूसरे से भिन्न है तथा कपिल (सांख्य), हिरण्यगर्भ (योग), अपान्तरतमा (वेद), शिव (पाशुपत) एवं स्वयं भगवान् (पांचरात्र) द्वारा प्रवर्तित हैं। विष्णुधर्मोत्तरपुराण (११७४१३४) में ऐसा वक्तव्य आया है-'ब्रह्म की खोज के लिए पांच सिद्धान्त हैं, यथा-सांख्य, योग, पांचरात्र, वेद एवं पाशुपत।' शान्तिपर्व (३३९।६८) पर आधारित हो कतिपय लेखक (विशेषतः रामानुज सम्प्रदाय के) ऐसा कहते हैं कि सम्पूर्ण पांचरात्र पद्धति में वैदिक प्रामाणिकता है, किन्तु अपरार्क (पृ० १३) एवं परिभाषाप्रकाश (पृ० २३) इसे पूर्णरूपेण वैदिक नहीं मानते, प्रत्युत वैकल्पिक मानते हैं।" ६९. काम्यनमित्तिका राजन् यज्ञियाः परमक्रियाः। सर्वाः सात्वतमास्थाय विधि चक्र समाहितः॥पाञ्चरात्रविदो मुख्यास्तस्य गेहे महात्मनः। प्रायणं भगवत्प्रोक्तं भुञ्जते वाप्रभोजनम् ॥ शान्ति० ३३५।२४-२५। . ७०. यो वासुदेवो भगवान् क्षेत्रको निर्गुणात्मकः। शेयः स एव राजेन्द्र जीवः संकर्षणः प्रभुः॥ संकर्षणाच्च प्रद्युम्नो मनोभूतः स उच्यते । प्रद्युम्नात् योऽनिरसस्तु सोऽहंकारः स ईश्वरः॥ शान्ति० ३३९।४०-४१ । ७१. वासुदेव सम्प्रदाय को पाञ्चरात्र क्यों कहा गया, इसका उत्तर अभी तक सन्तोषपर नहीं किया जा सका है। लगता है, इस सम्प्रदाय का किन्हीं पांच बातों से सम्बन्ध है। किन्तु 'रात्र' या 'काल' शब्द क्यों प्रयुक्त हुआ है ? यही तो कठिनाई है। शान्ति० (३३६।४६) में पाञ्चरात्र को पंचकाल भी कहा गया है (तरिष्टः पञ्चकालजहरिरेकान्तिभिर्नरैः)। बहुत से अनुमान लगाये गये हैं, जिनमें कुछ निम्नोक्त हैं, यथा-(१) पांच रातों तक नारायण ने इसे अनन्त, गरुड़, विश्वक्सेन, ब्रह्मा एवं रुद्र को पढ़ाया; (२) परमसंहिता (३१११९) में आया है कि परमात्मा ने यह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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