SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५६ धर्मशास्त्र का इतिहास रूप में समझ लेते थे, इन्द्र अपने भक्त के लिए पत्नी भी बन जाता था, इन्द्र अपने भक्त से लेकर वह सोमरस भी पी लेता था जो अन्य यन्त्रों के अभाव में दाँत से ही निकाला गया हो । ये ऋग्वेदीय प्राचीन कथाएँ हमें मध्यकाल की कथाओं का स्मरण दिलाती हैं, यथा राम द्वारा बदरी फल खाना जो शबरी द्वारा जूठे किये जा चुके थे, क्योंकि भक्ति में सराबोर भील नारी शबरी बेरों को चख चखकर रखती जाती थी, जिससे राम को मीठे फल मिलें न कि खट्टे ; पंढरपुर के देवता बिठोवा जिन्होंने महार ( चमार, अस्पृश्य) का रूप धारण किया और बीजापुर के नवाब को उतना धन दे दिया, जो उस अन्न का दाम था जिसे उनके भक्त दामाजी ने, जो अन्नागार के अफसर थे, अकालपीड़ित लोगों में बाँट दिया था। वरुण को सम्बोधित कुछ मन्त्र भी सख्य भक्ति के द्योतक हैं, यथा--' 'हे वरुण, वह कौन-सा अपराध मैंने किया है जिसके कारण तुम अपने मित्र एवं भाट (चारण, स्तोता ) मुझको हानि पहुँचाना चाहते हो; घोषित करो, हे अजेय, स्वेच्छाचारी देव, जिससे तुम्हें (प्रसन्न करके ) मैं पाप से मुक्त होऊँ और शीघ्र ही नमस्कार के लिए तुम्हारे पास पहुँच जाऊँ ।' देखिए ऋ० ७७८६।४; ७८८५; ७१८९१५ | यह द्रष्टव्य है कि ऋग्वेद में एक ऐसा मन्त्र है जिसमें नमः ( नमस्कार ) का देवताकरण पाया जाता है, यथा -- ' नमः स्वयं शक्तिशाली है; मैं नमस्कार के साथ सेवाभाव देता हूँ; नमस्कार ने पृथिवी एवं द्यौ को सँभाल रखा है; देवों को नमस्कार; नमस्कार इन देवों पर शासन करता है, जो कोई ( मुझसे ) पाप हो जाता है, मैं नमः (नमस्कार ) से ही उसका शमन कर लेता हूँ ।" यद्यपि प्रमुख उपनिषदों में 'भक्ति' शब्द नहीं आया है किन्तु कठ एवं मुण्डक उपनिषदों में भक्ति - सम्प्रदायों का यह सिद्धान्त कि यह केवल भगवद्द्महिमा है जो भक्त को बचाती है, पाया जाता है, यथा-'यह परम आत्मा ( गुरु के ) प्रवचन से नहीं प्राप्त होता और न मेधा (बुद्धि) से और न बहुश्रुतता ( अधिक ज्ञान ) से; परमात्मा की प्राप्ति उसी को होती है जिस पर परमात्मा का अनुग्रह होता है; उसी के सामने यह परम आत्मा अपना स्वरूप प्रकट करता है' (कठोप० २१२२; मुण्डकोप० ३।२ ३ ) | यह कथन इस सिद्धान्त का द्योतक है कि परमात्मा का अनुग्रह ही भक्त को मोक्ष प्रदान करता है। श्वेताश्वतरोपनिषद् ने 'भक्ति' शब्द का प्रयोग उसी अर्थ में किया है जो गीता तथा अन्य भक्ति-विषयक ग्रन्थों में प्राप्त होता है" - 'ये कथित बातें उस उच्च आत्मा वाले व्यक्ति में, जो परमात्मा में परम भक्ति रखता है और वही भक्ति जो भगवान् में है, गुरु रखता है, अपने-आप प्रकट हो जाती हैं।' इसी उपनिषद् ने भक्ति सम्प्रदाय के दृष्टिकोण ( सिद्धान्त ) पर बल दिया है- 'मैं, मोक्ष का इच्छुक उस परमात्मा की शरण में पहुँचता हूँ जिसने पूर्व काल में ब्रह्मा को प्रतिष्ठापित किया, जिसने उसको (ब्रह्मा को ) वेदों का ज्ञान प्रदान किया और जो प्रत्येक आत्मा की मेधा को प्रकाशित करता है ।' श्वेताश्वतर उप० में प्रयुक्त 'प्रपद्ये' शब्द रामानुज जैसे वैष्णव सम्प्रदायों में 'प्रपत्ति' नामक सिद्धान्त का आधार बन गया है। ६७. नम इदुग्रं नम आ विवास नमो दाधार पृथिवीमुत द्याम् । नमो देवेभ्यो नम ईश एषां कृतं चिवेनो नमस विवासे ॥ ऋ० (६५११८) । ६८.. यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ । तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥ श्वेताश्व० ६।२३ यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै । तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वे शरणमहं प्रपद्ये ॥ श्वेता श्व० ६।१८ । स्वप्नेश्वर ने शाण्डिल्य - भक्तिसूत्र (४।१।१ ) के भाष्य में इस अन्तिम मन्त्र का आधार लिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy