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________________ जनकल्याण की प्रशंसा एवं सामाजिक न्याय का आवेश कर्म से वही कहना चाहिए (करना चाहिए) जो प्राणियों के लिए यहाँ एवं परलोक में कल्याणकर हो।' स्कन्द (काशीखण्ड) में आया है--'जिनके हृदय में परोपकार की भावना जगी रहती है, उनकी विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और प्रत्येक पद पर उन्हें सम्पदा की प्राप्ति होती है। वह शुद्धि तीर्थस्नान से नहीं प्राप्त होती, वह फल भाँति-भांति के दानों से नहीं प्राप्त होता और न वह कठोर तपों से प्राप्त होता है, जो परोपकार से प्राप्त होता है। सभी प्रकार के वाग्जाल का मन्थन करने के उपरान्त यही निष्कर्ष निकलता है कि परोपकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और न दूसरों की हानि करने से बढ़कर कोई पाप है।' ब्रह्मपुराण में आया है-'उसका जीवन सफल (धन्य) है, जो सदा दूसरों का कल्याण करता है; अग्नि, जल, सूर्य, पृथिवी एवं विविध प्रकार के धान्य परोपकार के लिए उत्पन्न होते हैं, विशेषतः सज्जन दूसरों के कल्याण के लिए जीते हैं।' यह आश्चर्यजनक है कि भागवतपुराण में वह संकेत मिलता है जो आधुनिक समाजवादी सिद्धान्तों में परिलक्षित होता है-'मनुष्यों का स्वत्व केवल वहीं तक है जितने से उनका पेट भरता है, जो व्यक्ति उससे अधिक को अपना कहता है वह चोर है इसलिए दण्डनीय है।'६६ ।। __ भक्ति पुराणों ने भक्ति पर अधिक बल दिया है। हम यहाँ पर प्राचीन काल से अब तक के भक्ति-सम्बन्धी इतिहास पर प्रकाश नहीं डालेंगे। उसके लिए अलग-अलग ग्रन्थ हैं, जिनमें कुछ नीचे लिखे भी जायेंगे। सामान्य रूप से कुछ शब्द भक्ति के विषय में लिख देना आवश्यक है। इसके उपरान्त हम इस सम्बन्ध में पुराणों की बातें कहेंगे। भक्ति-सिद्धान्त के संकेत ऋग्वेदीय सूक्तों एवं मन्त्रों में भी मिल जाते हैं, जिनमें कुछ ईश्वर-मक्ति से परिपूर्ण से लगते हैं, विशेषतः वरुण एवं इन्द्र को सम्बोधित मन्त्रों में। उदाहरणार्थ,-'मेरे सभी विचार (या उक्तियाँ) मिलकर प्रकाश ढूंढ़ते हुए, उसके लिए इन्द्र की स्तुति करते हैं। जिस प्रकार पत्नियां अपने पति का आलिंगन करती हैं या अपने सुन्दर नवयुवक प्रेमी से आलिंगनबद्ध होती हैं, उसी प्रकार वे (विचार) उसका (इन्द्र का) जो वानों का दिव्य दाता है, आलिंगन करते हैं'; 'तुम्हारी मित्रता (तुम्हारे भक्तों के साथ) नष्ट नहीं होने वाली (सदा चलने वाली, नित्य ) है, उसके लिए, जो गाय चाहता है, तुम गाय हो जाते हो, जो अश्व चाहता है उसके लिए तुम अश्व हो जाओ'; 'हे इन्द्र, तुम मेरे पिता या भाई से, जो मुझे नहीं खिलाते, अच्छे (धनी) हो; (तुम) एवं मेरी माता, हे वसु, बराबर हैं, और धन एवं अनुग्रह देने के लिए (मेरी) रक्षा करते हैं'; 'तुमने कक्षीवान् को, जिसने तुम्हें एक सूक्त सुनाया एवं सोम की आहुति दी, और जो बूढ़ा हो गया था, वृचया दी, जो नवयुवती थी; तुम वृष्णश्व की पत्नी बने ; तुम्हारे ये सभी (अनुग्रह) सोम-निषकों की आहुतियों के समय उद्घोषणा के पात्र हैं'; (हे इन्द्र) 'तुम, जो चमकने वाले हो, प्रत्येक घर में छोटे मनुष्य का रूप धारण करके आओ और मेरे दांतों से निकाले जाते हुए इस सोमरस को भुने अन्न, अयूप (पूआ) एवं स्तवक के साथ पीओ।' (ऋ० १०१४३११, ११६२१११ से मिलाइए; ६।४५।२६; ८।१।६; ८१९११२; ११५१।१३)। मिलाइए ऋ० ३।४३।४; १०॥४२॥११; १०।११२।१० (इन सभी में इन्द्र को सखा कहा गया है); १११०४।९; ७।३२।२६ (दोनों में इन्द्र को पिता के समान कहा गया है)। उपर्युक्त वचनों से पता चलता है कि वैदिक ऋषि लोग सख्य-भक्ति के स्तर पर पहुंच चुके थे, वे इन्द्र को माता के ६।४-५ एवं ७); जीवितं सफलं तस्य यः परार्थोद्यतः सदा। अग्निरापो रविः पृथ्वी धान्यानि विविधानि च। परार्थ वर्तनं तेषां सतां चापि विशेषतः ॥ ब्रह्म (१२५।३६-३७)। ६६. यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् । अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डर्महति ॥ भागवत (७.१४८)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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