SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास किया जाय? इसका उत्तर है--सामान्य नियम यह है कि ऐसी स्थिति में जब कि द्वितीया तृतीया से संयुक्त हो तो उसी को उचित माना जाता है न कि उस द्वितीया को जो प्रतिपदा से संयुक्त हो। इसी प्रकार जब व्रत तृतीया को सम्पादित होने वाला हो और तृतीया द्वितीया से संयुक्त हो और चतुर्थी से भी मिली हो, तो ऐसी स्थिति में द्वितीया से संयुक्त तृतीया को उचित माना जाता है, न कि चतुर्थी से संयुक्त तृतीया को। परिणाम यह निकला कि प्रतिपदा एवं द्वितीया, तृतीया एवं चतुर्थी, पंचमी एवं षष्ठी, सप्तमी एवं अष्टमी, नवमी एवं दशमी, एकादशी एवं द्वादशी, त्रयोदशी एवं चतुर्दशी, पूर्णिमा एवं प्रतिपदा तथा अमावास्या एवं चतुर्दशी का सम्मिलन अनुचित ठहरता है।" यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि उपर्युक्त नियमों में अपवाद भी होते हैं। कुछ लोगों के मत से ये नियम शुक्ल पक्ष की तिथियों से सम्बन्धित हैं न कि कृष्ण पक्ष से। किन्तु अपरार्क (पृ० २१६), कालनिर्णय (पृ० १७२), व्रतकालविवेक (भाग ७, पृ० ८७), निर्णयसिन्धु (पृ० १८) के अनुसार उपर्युक्त नियम कृष्ण पक्ष की तिथियों से भी सम्बन्धित ठहराये गये हैं, क्योंकि अमावास्या का प्रतिपदा से संयुक्त होना इसे सिद्ध कर देता है। यह विचारणीय है कि युग्मवाक्य (जब कि यह कृष्ण पक्ष के लिए भी प्रयुक्त हो) कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनों पक्षों की दशमी एवं त्रयोदशी की ओर संकेत नहीं करता। इस विषय में देखिए हेमाद्रि (काल, पृ० ९३), का०नि० (पृ० २३१), का० वि० (पृ० ५०१)। पितरों के कृत्यों से युग्मवाक्य का सम्बन्ध नहीं है। गृह्यपरिशिष्ट ने व्यवस्था दी है कि पितर लोग उस तिथि पर आते हैं जो सूर्यास्त के समय उपस्थित रहती है, और स्वयं ब्रह्मा ने ऐसी तिथि एवं अपराह पितरों के लिए व्यवस्थित किये हैं (व० क्रि० कौ०, पृ० १६, ७० का० वि०, पृ० ८६, तिथिविवेक, पृ० २२२)। अब इस विषय के विस्तार में हम यहाँ नहीं पड़ेंगे। अन्य बातों के लिए देखिए ब्र० का० वि० (पृ० ८९), व० क्रि० कौ० (पृ० १०) आदि। कालादर्श में एक विचित्र सिद्धान्त आया है कि तिथियों के क्षय एवं वृद्धि का कारण मनुष्यों के पुण्य एवं पाप हैं। इसमें तिथियों की कोटियाँ यों हैं--खर्व (६० घटिकाओं का उचित विस्तार), दर्प (६० घटिकाओं से अधिक विस्तार) एवं हिंस्र या हिंसा (६० घटिकाओं से कम का विस्तार)। देखिए राजमार्तण्ड (११३२)। कुछ ग्रन्थों में एक सामान्य नियम की व्यवस्था है कि जब महीना के नाम वाले नक्षत्र में पूर्णिमा का चन्द्र हो और उसमें बृहस्पति भी हो तो उसके साथ 'महा' विशेषण लगता है। उदाहरणार्थ, कार्तिक की पूर्णिमा उस तिथि १०. युग्माग्नियुगभूतानां षण्मुन्योर्वसुरन्ध्रयोः। रुद्रेण द्वादशी युक्ता चतुर्दश्या च पूर्णिमा॥ प्रतिपद्यप्यमावास्या तिथ्योयुग्मं महाफलम्। एतद् व्यस्तं महादोषं हन्ति पुण्यं पुरा कृतम् ॥ यह हेमाद्रि द्वारा (काल पर, पृ० ६७) उद्धृत है। युग्म, अग्नि, युग, भूत, मुनि, वसु, रन्ध्र एवं रुद्र क्रम से २, ३, ४, ५, ७, ८, ९, ११ नामक संख्याओं के स्थान पर रखे गये हैं। माध्यमिक निबन्धों में ये पंक्तियाँ विभिन्न ग्रन्थों से उद्धृत मानी गयी हैं। स्मृतिच० (पृ० ३५०), अपरार्क (पृ० २१४, २१६), निर्णयसिन्धु (पृ० १८) ने इन्हें निगम (वैदिक उक्तियाँ) माना है। किन्तु कालविवेक (पृ० ४७५), व्र० का० वि० (पृ० २१४), व० क्रि० को० (पृ. २) ने इन्हें गृह्यपरिशिष्ट का माना है; तिथितत्त्व (पृ० ३) ने इन्हें निगम एवं गृह्मपरिशिष्ट दोनों ही को उक्तियाँ ठहराया है। ये पद्य अग्निपुराण (१७५॥३६-३७) एवं गरुडपुराण (१११२८।१६-१७) के हैं। और देखिए कालादर्श, राजमार्तण्ड (११२३-२४), समयप्रदीप, जीमूतवाहनकृत कालविवेक (पृ० ४७५-५०२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy