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________________ तिथियों के मान, भेद, वेध आदि का विचार जिनमें प्रथम सामान्यतः सूर्योदय से ६ घटिकाओं तक चलकर दूसरी तिथि में मिल जाता है और दूसरा वह है जो सूर्यास्त के ६ घटिका पूर्व किसी दूसरी तिथि से मिल जाता है। कुछ तिथियों में ६ घटिकाओं की ही अवधि निर्धारित होती है। जो तिथि ६० घटिकाओं वाली होती है और सूर्योदय से आरम्भ होती है अर्थात् जब वह पूर्णा होती है तो कोई कठिनाई नहीं होती। किन्तु धर्मसिन्धु के अनुसार जब शुद्धा तिथि होती है तो कठिनाई उत्पन्न हो जाती है। कुछ सामान्य नियम ध्यान देने योग्य हैं। श्रुति में आया है--'पूर्वालो वै देवानां मध्यन्दिनो मनुष्याणामपराल : पितणाम्' (शत० ब्रा० २।४।२।८), अर्थात् दोपहर के पूर्व का समय देवों का, मध्याह्न (दोपहर) वाला मनुष्यों का तथा अपराल वाला पितरों का है। मनु (४११५२) में आया है--'व्यक्ति को प्रातःकाल ये कर्तव्य करने चाहिएशरीर की शुद्धि, दन्त धावन, स्नान, आँखों में अंजन लगाना एवं देव-पूजा पूर्वाह्न में ही हो जानी चाहिए।' अतः देवों के लिए दिन में किये जाने वाले सभी धार्मिक कृत्य निर्दिष्ट तिथियों में प्रातःकाल ही किये जाने चाहिए। किन्तु वे सभी व्रत, जो संध्याकाल या रात्रि में सम्पादित किये जाने वाले होते हैं, उसी तिथि में किये जाने चाहिए, भले ही वह किसी दूसरी तिथि से मिश्रित (विद्धा) हो। यह बात ध्यान देने योग्य है कि मास के दोनों पक्षों में सभी तिथियाँ पूर्व या उपरान्त' वाली तिथि को तीन मुहुर्तों (अर्थात् ६ घटिकाओं) से प्रभावित करती हैं। कुछ तिथियाँ कई घटिकाओं से वेध उत्पन्न करती हैं, यथा पंचमी १२ घटिकाओं से षष्ठी का, दशमी १५ घटिकाओं से एकादशी का वेध करती है। कभी-कभी विद्धा तिथियाँ धार्मिक कर्मों के योग्य ठहरती हैं, कभी-कभी सर्वथा प्रतिकूल ठहरती हैं। जब तक उचित तिथि का निश्चय न हो जाय तब तक श्रोत एवं स्मार्त कृत्य, व्रत, दान तथा अन्य कर्म, जैसा कि वेद द्वारा व्यवस्थित है, उचित फल नहीं देते। वह तिथि, जो कालव्यापी होती है (यथा प्रातः, मध्याह्न, पूरे दिन आदि वाली) और जो किसी धार्मिक कृत्य के लिए प्रतिपादित रहती है, वह उस कृत्य के योग्य ठहरती है। पहला सिद्धान्त' है कि काल (किसी कृत्य' के लिए निर्धारित समय) केवल विस्तार नहीं है, प्रत्युत यह एक निमित्त (अवसर) है, जिसके होने से कृत्य होता है और जो कृत्य' उसके भीतर नहीं सम्पादित होता, वह असम्पादित सा रह जाता है। देखिए तै० सं० २।२।५।४। उसमें आया है--वह व्यक्ति स्वर्गच्युत हो जाता है, जो दर्शपूर्णमास कृत्य करने में पूर्णमासी या अमावास्या के काल का अतिक्रमण कर देता है।' हेमाद्रि ने उचित काल में किये जाने वाले कृत्यों की महत्ता पर बल दिया है, और कहा है कि शिष्टों की निन्दा से बचने के लिए ही गौण काल का आश्रय लिया जाता है, या अपने सन्तोष देने के लिए, या जब कोई अन्य विकल्प नहीं होता। यदि कोई तिथि दो दिनों वाली हो और निश्चित समय वाली हो, या वह निर्दिष्ट समय के एक भाग तक ठहरने वाली हो, तो सामान्य नियम यह है कि युग्मवाक्य द्वारा निर्णय करना चाहिए। उदाहरणार्थ, मान लिया जाय कोई व्रत किसी तिथि के दोपहर में होने वाला हो, तो वह तिथि दोपहर के समय दो दिनों में पायी जा सकती है या मान लिया जाय कि कोई तिथि दोपहर के एक या दो घटिका उपरान्त आरम्भ होती है और दूसरे दिन दोपहर के पूर्व एक या दो घटिका पहले ही समाप्त हो जाती है, तो ऐसी स्थिति में कौन-सी तिथि (पूर्व-विद्धा या पर-विद्धा) कृत्य के लिए उचित है, इसका निर्णय सामान्य सिद्धान्त के अनुसार युग्मवाक्य द्वारा किया जायगा। युग्मवाक्य का अनुवाद निम्न रूप से किया जा सकता है--'निम्न तिथियों के जोड़े बड़ा फल देने वाले होते हैं, यथा द्वितीया एद तृतीया, चतुर्थी एवं पंचमी, षष्ठी एवं सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी, एकादशी एवं द्वादशी, चतुर्दशी एवं पूर्णिमा तथ अमावास्या एवं प्रतिपदा। इससे विपरीत, अन्य तिथियों के जोड़ों से भयंकर हानि होती है, इनसे संचित पुण्य समाप्त हो जाते हैं।' एक प्रश्न पूछा जा सकता है--जब द्वितीया प्रतिपदा से युक्त हो (पूर्वविद्धा) और दूस दिन तृतीया से युक्त (परविद्धा) तो ऐसी स्थिति में द्वितीया तिथि को किया जाने वाला व्रत किस तिथि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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