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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास जया, रिक्ता एवं पूर्णा के दिन हैं क्रम से शुक्रवार, बुधवार, मंगलवार, शनिवार एवं बृहस्पतिवार और इन दिनों में सफलता एवं मनोरथ की प्राप्ति होती है। पहली से पन्द्रहवीं तिथि तक पन्द्रह निषिद्ध वस्तुओं के सेवन से जो हानि होती है उसके विषय में तिथितत्त्व (पृ. २७-२८) में उल्लेख है। निर्णयसिन्धु (पृ० ३२) ने भूपाल के मुहूर्तदीपक से उद्धरण देकर पहली से पन्द्रहवीं तिथि तथा अमावास्था को सेवन योग्य वस्तुओं एवं निषिद्ध कर्मों का वर्णन किया है। दूसरी और भविष्य० (ब्राह्मपर्व, १६॥१८-२०) ने पन्द्रहों तिथियों में सेवन करने योग्य वस्तुओं का उल्लेख किया है, यथा दूध प्रतिपदा को; पुष्प द्वितीया को; क्षार के अतिरिक्त समी कुछ तृतीया को; तिल, दूध, फल एवं शाक सप्तमी एवं अष्टमी को; आटा, बिना पका भोजन एवं घृत एकादशी को, पायस (दूध में पकाया हुआ चावल), गोमूत्र, जौ, जल जिसमें कुश डाला गया हो। और देखिए वामन० (१४।४८-५१)।। तिथियों द्वारा समय का गिनना बहुत प्राचीन क्रिया है और भारतीय ही है। पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय ज्योतिष, नक्षत्रविद्या आदि पर चीनी, वैबीलोनी, अरबी, यूनानी प्रभावों की चर्चा तो की है, किन्तु किसी को ऐसा साहस नहीं हुआ कि वह यह सिद्ध करने का प्रयास करे कि तिथि-सिद्धान्त पर बाह्य प्रभाव पड़ा है। यूनानी प्रभाव के सिद्धान्तों पर अगले प्रकरण में वर्णन किया जायगा।। वैदिक (एवं स्मार्त) व्यवस्थाएँ तिथियों के अनुसार दो प्रकार की हैं--(१) दोनों पक्षों की एकादशी को करने योग्य बातें, यथा 'एकादशी को उपवास करना चाहिए' तथा (२) ऐसी व्यवस्थाएँ जो एकादशी को वजित बातों पर बल देती हैं, यथा 'एकादशी के दिन नहीं खाना चाहिए।' इस प्रकार की दोनों व्यवस्थाओं के लिए तिथियाँ अंग हैं। गर्ग के मत से तिथि, नक्षत्र, वार आदि पुण्य एवं पाप के साधन हैं, ये प्रधान कर्म में सहकारी हैं, किन्तु स्वतन्त्र रूप से फलदायक नहीं हैं। तिथियों के दो प्रकार हैं--पूर्णा एवं सखण्डा। धर्मसिन्धु में उल्लिखित विभाजनों का वर्णन कुछ ग्रन्थों में नहीं पाया जाता। निर्णयसिन्धु ने दो प्रकार दिये हैं, यथा शुद्धा एवं विद्धा। तिथ्यकं ने सम्पूर्णा एवं खण्डा दो प्रकार बताये हैं। स्कन्दपुराण में आया है--"प्रतिपत्प्रभृतयः सर्वा उदयादोदयाद्रवेः। सम्पूर्णा इति विख्याता हरिवासरवजिताः॥” इस विषय में देखिए स्मृतिच० (२, १० ३५७) एवं तिथ्यर्क (पृ० ३)। जब कोई एक तिथि सूर्योदय से ६० नाडिकाओं (घटिकाओं) तक पूरे दिन को घेरती है तो उसे पूर्णा कहते हैं (अर्थात् तिथि का आरम्भ ठीक सूर्योदय से होता है और अन्त ठीक दूसरे सूर्योदय के पूर्व ६० घटिकाओं में हो जाता है)। इसके अतिरिक्त अन्य तिथियाँ सखण्डा कही जायँगी। पुनः सखण्डा के दो प्रकार हैं-शुद्धा एवं विद्धा। शुद्धा तिथि वह है जो सूर्योदय से सूर्यास्त तक चलती है (शिवरात्रि आदि) या अर्ध रात्रि तक चलती है। अन्य सखण्डा तिथियाँ विद्धा कही जाती हैं। वेध के दो प्रकार हैं--प्रातःवेध एवं सन्ध्यावेध, ८. भूपालः। कूष्माण्डं बृहती क्षारं मूलक पनसं फलम्। धात्री शिरः कपालान्त्रं नखचर्मतिलानि च। क्षुरकागनासेवां प्रतिपत्प्रभृति त्यजेत् ॥ नि० सि० (पृ० ३२)। धात्री का अर्थ है आमलक, शिरः का नारिकेल, कपाल का अलाबु, अन्त्र का पटोलक, नख का शिम्बी एवं चर्म का मसूरिका। विशिष्ट तिथियों में निषिद्ध वस्तुओं के सेवन से उत्पन्न परिणामों के विषय में तिथितत्त्व में विस्तार के साथ वर्णन है। ९. तिथिनक्षत्रवारादि ताधनं पुण्यपापयोः। प्रधानगुणभावेन स्वातन्त्र्येण न ते क्षमाः॥ गर्ग (तिथितत्त्व, पृ० ४ द्वारा उद्धृत)। और देखिए पु० चि० (पृ० ३३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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