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________________ तिथियों का स्वरूप और परिमाण २७ पूर्णमासी तिथि का उल्लेख किया है। इससे प्रकट होता है कि वैदिक कालों में (कम-से-कम ऐतरेय ब्राह्मण के पूर्व) विशिष्ट धार्मिक कृत्यों की उचित तिथियों के विषय में विभिन्न मत-मतान्तर थे। यह समय लगभग ३००० वर्ष पुराना है। 'तिथि' शब्द ई० पू० ८०० ई० के लगभग साधारण प्रयोग में आ गया था। सूर्य से १२ अंश की दूरी तक जाने के लिए चन्द्र को जो समय लगता है उस अवधि को तिथि कहा गया है। सूर्यसिद्धान्त में आया है--'तिथि चान्द्र दिन है, जब चन्द्र सूर्य को छोड़कर (अमावास्या के अन्तिम क्षण पर) प्रति दिन पूर्व दिशा में १२ अंश (भाग) पार करता है।' चन्द्र की गति अनियमित है, इसलिए चन्द्र १२ भाग कमीकमी ६० घटिकाओं में, कभी अधिक (६५ घटिकाओं तक) में और कभी-कभी कम घटिकाओं (५४ घटिकाओं तक) में पार करता है। इसका परिणाम यह होता है कि कभी तो एक दिन में एक तिथि होती है और कभी दो तिथियाँ ; अधिकतर एक दिन में दो तिथियाँ होती हैं, अर्थात् प्रातःकाल छठ है तो अपराल, सन्ध्याकाल एवं रात्रि में सप्तमी। यह भी सम्भव है कि एक दिन में तीन तिथियाँ हों, अर्थात् सोमवार को छठ की केवल दो घटिका शेष हों, तदुपरान्त सप्तमी केवल ५६ घटिकाओं की अवधि की हो और आगे अष्टमी उसी दिन दो घटिकाएँ अपने में समेट ले। इसका उलटा भी है; केवल एक तिथि तीन दिनों तक चलती रह सकती है। उदाहरणार्थ, सोमवार की अन्तिम दो घटिकाएँ छट की प्रथम दो घटिकाएँ हों, तदुपरान्त मंगल की ६० घटिकाएँ छठ में ही समाहित हों और अन्तिम दो घटिकाएँ बुध के प्रातःकाल तक चलती रहें। जिस दिन तीन तिथियाँ पड़ जाती हैं वह राजमार्तण्ड के अनुसार अति पवित्र (शुभ) दिन माना जाता है, किन्तु जब एक तिथि तीन दिनों तक चलती रहती है तो वह वैवाहिक कार्यों के लिए अशुभ मानी जाती है। यह तिथि आक्रमण करने, शुभ धार्मिक कृत्य करने या पुष्टिकर्म के लिए भी अशुभ ठहरायी गयी है। यदि कोई तिथि सूर्योदय के पूर्व से आरम्भ होती है अथवा इसका आरम्भ सूर्योदय से मिल जाता है और आगे आने वाले सूर्योदय तक वह चलती रहती है तो ऐसी तिथि (यथा प्रतिपदा, द्वितीया आदि या जो भी हो) दोनों दिनों की होती है और एक ही नाम की दो तिथियाँ एक के उपरान्त एक प्रकट होती हैं। इसे उस तिथि की वृद्धि कहते हैं। यदि कोई तिथि सूर्योदय के कुछ देर उपरान्त' आरम्भ होती है और दूसरे दिन सूर्योदय के पूर्व समाप्त हो जाती है तो इसका किसी पूरे दिन के साथ संयोग नहीं हो सकता, तब उसे पंचांग में नहीं रखा जाता और तिथिक्षय माना जाता है। दिन से तिथि छोटी होती है अतः वृद्धि की अपेक्षा क्षय का योग अधिक लग जाया करता है। गोभिलगृह्यसूत्र से प्रकट है कि उसके बहुत पहले से बहुत सी तिथियों के साथ उनके देव या पति समन्वित हो चुके थे। वराहमिहिर की बृहत्संहिता (९८।१-२) में तिथिपतियों के नाम.ये हैं--पहला ब्रह्मा, दूसरा ब्रह्मा, तीसरा हरि, चौथा यम, पाँचवाँ चन्द्र, छठा कार्तिकेय, सातवाँ इन्द्र, ८वें वसु लोग, ९वें नाग लोग, १०वा धर्म, ११वां सविता. १३वाँ मदन, १४वा कलि. १५वें विश्वेदेव लोग तथा अमावास्या के पितर लोग। इन तिथियों में इनके पतियों के अनुरूप कर्म किये जाने चाहिए। किन्तु अन्य लेखकों ने वराहमिहिर से भिन्न तिथिपतियों की सूची दी है। देखिए रत्नमाला (२), स्कन्दपुराण (१।१।३३।७८-८३), गरुड० (१।१३७।१६-१९) एवं नारदपुराण (११५६।१३३-१३५)। वराहमिहिर ने तिथियों को पाँच दलों में बाँटा है--नन्दा, भद्रा, विजया या जया, रिक्ता एवं पूर्णा। उन्होंने यह कहा है कि इन तिथियों पर इनके पतियों के योग्य कर्म किये जाने चाहिए और सफलकाम होना चाहिए। इन तिथियों में किये गये कर्म उनके नाम के अनुरूप फल देते हैं। नन्दा तिथियाँ प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी हैं, भद्रा द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी हैं, विजया तृतीया, अष्टमी, त्रयोदशी हैं, रिक्ता चतुर्थी, नवमी एवं चतुर्दशी हैं, पूर्णा पंचमी, दशमी एवं पूर्णिमा हैं। आथर्वण ज्योतिष में भी यही बात पायी जाती है। उसमें आया है कि नन्दा, भद्रा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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