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________________ २६ धर्मशास्त्र का इतिहास ऐतरेय ब्राह्मण (४०१५) में आया है कि अमावास्या में चन्द्र सूर्य में मिल जाता है। यही बात आप० ध० सू० में मी है। अतः अमावास्या' नाम इसलिए पड़ा कि उस दिन (ऐसी कल्पना की गयी) चन्द्र रात्रि में जलों एवं ओषधियों के साथ पृथिवी पर रहता है या उस रात्रि में वह सूर्य के साथ रहता है। कभी-कभी नाम विरोधी अर्थ में भी होते हैं, मूर्ख को समझदार एवं वीर को कायर बना दिया जाता है। इसी प्रकार अमावास्या को दर्श' भी कहा गया है, क्योंकि उस दिन चन्द्र नहीं दिखाई पड़ता (किन्तु दूसरे दिन दिखाई पड़ जायगा)। वैदिक साहित्य में एक अन्य प्रसिद्ध तिथि है 'अष्टका' (पूर्णमासी के उपरान्त आठवाँ दिन, विशेषतः माघ मास में), जिस दिन पितरों को पिण्ड दिया जाता है। अत्यन्त प्राचीन काल में भी चन्द्र के चार स्वरूप निर्धारित थे, यथा---पूर्ण चन्द्र, अध चन्द्र, चन्द्र का पूर्ण अभाव तथा उसके आठ दिनों के उपरान्त । ते ० ब्रा० (१।५।१०।५) में आया है कि १५वें दिन चन्द्र समाप्तसा हो जाता है और पुनः १५वें दिन पूर्ण हो जाता है। इससे प्रकट है कि तैत्तिरीय ब्राह्मण के पूर्व यह भली भाँति विदित था कि चान्द्र मास में ३० चन्द्र दिन (तिथियाँ ) होते हैं। शत० ब्रा० (१।६।३।३५) में आया है कि 'प्रजापति की संधियाँ (जोड़), जब वे प्राणियों की सर्जना में प्रवृत्त थीं, ढीली पड़ गयीं ; संवत्सर वास्तव में प्रजापति है और इसके (संवत्सर के) जोड़ दिन एवं रात्रि के दो सन्धि-स्थल, पूर्णमासी, अमावास्या एवं ऋतुओं के आरम्भ (प्रथम दिन) हैं। अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता एवं अन्य वैदिक ग्रन्थों में पूर्णमासी एवं अमावास्या शब्द अधिकतर आते हैं, किन्तु ऋग्वेद में ये अनुपस्थित हैं। "आरम्भिक पूर्णमासी अनुमति है और बाद वाली राका, इसी प्रकार आरम्भिक अमावस्या सिनीवाली है और बाद वाली कुहू।" ऐसी उक्ति ऐतरेय ब्रा० (३२।९) में आयी है, जहाँ यह व्यक्त किया गया है कि 'यह वही तिथि है (जब धार्मिक कृत्य किये जाने चाहिए) और अकेली है जिससे सम्बन्धित होकर सूर्य अस्त होता है और उदित होता है। इससे स्पष्ट होता है कि ऐ० ब्रा० के पूर्व तिथियों के विषय में मतभेद उत्पन्न हो गया था। तिथि' शब्द संहिताओं में भी नहीं पाया जाता, किन्तु ऐत० ब्रा०, गृह्य एवं धर्म सूत्रों में पाया जाता है। गोमिलगृह्यसूत्र (१।१।१३ एवं २।८।१२ एवं २०) ने पवित्र अग्नि स्थापित करने के विषय में व्यवस्था देते हुए शुभ तिथि एवं नक्षत्र के समवाय का उल्लेख किया है और एक स्थान पर तिथि एवं नक्षत्र तथा केवल तिथि के स्वामी का उल्लेख किया है। कौशीतकीगृह्य० (११२५) ने उस तिथि को हवि देने की बात कही है जिस दिन शिशु उत्पन्न होता है और जलाशयों, कूपों, पोखरों के निर्माण के लिए शुक्ल पक्ष की किसी शुभ तिथि की व्यवस्था दी है (५।२)। निरुक्त (४५) ने ऋ० ५।४।५ में अग्नि के लिए प्रयुक्त 'अतिथि' के दो अर्थ किये हैं, जिनमें एक है जो दूसरों के घरों में विशिष्ट तिथियों को पहुंचता है। पाणिनि में तिथि के लिए कोई सूत्र नहीं है। पतञ्जलि ने ७. अतिथिः अभ्यतितः गृहान् भवति। अभ्येति तिथिषु परकुलानि इति वा। निरुक्त (४५)। यहाँ अतिथि में 'अ' 'अत्' (या 'इ' ?) नामक मूल से परिकल्पित किया गया है। मिलाइए मनु (३।११२)। 'तिथि' शब्द 'तन्' से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है फैलाना, जैसा कि मध्य काल के लेखकों का मत है। 'तन्यन्ते कलया यस्मात्तस्मात्तास्तिथयः स्मृताः।' सिद्धान्तशिरोमणि (माधव, पृ० ९८ एवं पुरुषार्थचिन्तामणि, पृ० ३२ में उद्धत)। कालमाधव में आया है-तनोति विस्तारयति वर्धमानां क्षीयमाणां वा चन्द्रकलामेको पः कालविशेषः सा तिथिः, यद्वा यथोक्तकलया तन्यते इति तिथिः। पृ० ९८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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