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व्रत-सम्बन्धी साहित्य, व्रतों के लिए काल
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या जब बृहस्पति सूर्य के गृह में हों अर्थात् सिंह राशि में ) किये गये कर्म निन्द्य हैं । व्रतराज के अनुसार नर्मदा के उत्तर में धार्मिक कृत्य सिंह राशि के बृहस्पति में नहीं करने चाहिए। किन्तु अन्य स्थानों में केवल सिहांश में (अर्थात् पूर्वाफाल्गुनी के प्रथम चरण में ) कर्तव्य हैं । रत्नमाला ( ३।१५ ) के मत से सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार एवं शुक्रवार धार्मिक कर्मों में शुभ हैं, किन्तु मंगलवार, शनिवार एवं रविवार को वही कर्म सफल होते हैं जिनके लिए स्पष्ट रूप से व्यवस्था दी गयी हो । भुजबल (१० २०९ ) के मत से मंगलवार सभी प्रकार के शुभ कर्मों के लिए अनुपयोगी है, किन्तु कृषि, अध्ययन (सामवेद के ) एवं युद्धों के लिए ठीक है ।
काल तथा इसके विभाजन, यथा अयनों (उत्तर एवं दक्षिण), ऋतुओं, मास, पक्ष, सप्ताह, दिनों आदि के विषय में दार्शनिक विवेचन अन्य विभाग में किया जायगा । यहाँ तिथियों के विषय में विवेचना होगी ।
'तिथि' शब्द ऋग्वेद एवं अन्य वैदिक संहिताओं में नहीं आता । किन्तु ऋग्वेद में भी इसके विषय में भावना एवं अनुभूति अवश्य रही होगी । पश्चात्कालीन वैदिक ग्रन्थों में 'अमावास्या' के दो प्रकार कहे गये हैं, सिनीवाली ( वह दिन जब अमावास्या चतुर्दशी से मिल जाती है) एवं कुहू ( जब अमावास्या दूसरे पक्ष की प्रतिपदा तिथि से मिल जाती है)। इसी प्रकार पूर्णमासी तो प्रकार की है, अनुमति ( चतुर्दशी से मिली हुई ) एवं राका ( दूसरे पक्ष की प्रतिपदा से जुड़ी हुई) । ॠग्वेद में सिवीवाली को दैव रूप प्राप्त है, वह दो देवों की बहिन कही गयी है, उसे हविर्भाग प्राप्त होता है, उससे सन्तान की प्रार्थना की गयी है । बृहदारण्यकोपनिषद् ( ६।४।२१ ) में गर्भाधान के लिए सिनीवाली एवं अश्विनों की आराधना की गयी है। ऋग्वेद ( २।३२।४-५, अथर्व ० ७१४८।१-२ )
का का भी ऐसा ही उल्लेख है । अनुमति के लिए देखिए ऋग्वेद (१०।५९।६ एवं १०।१६७।३) । वाज० सं० में प्रार्थना है--' आज अनुमति हमारे यज्ञ का अनुमोदन करे ।' निरुक्त (११।२९) में अनुमति एवं राका के विषय में विवेचन हुआ है, निरुक्तिकारों (व्युत्पत्ति करने वालों) के अनुसार अनुमति एवं राका देवों की पत्नियाँ हैं, किन्तु याज्ञिकों के मत से वे पूर्णमासी के दो प्रकार हैं, (श्रुति में) ऐसा ज्ञात है कि प्रथम पूर्णमासी अनुमति है और दूसरी राका । इसी प्रकार निरुक्त में सिनीवाली एवं कुहू के विषय में विवेचन है ( ११।३१ ) । अथर्व ० (६।११।३ ) में प्रजापति, अनुमति एवं सिनीवाली एक साथ उल्लिखित हैं । कुहू का उल्लेख अथर्ववेद में हुआ है, जहाँ उसे देवता कहा गया है और यज्ञ में उसका आह्वान हुआ है, जिससे वह याजक को सम्पत्ति एवं योद्धा पुत्र दे । ० सं०] ( ११८८१) एवं श० ब्रा० (९|५|१|३८ ) में अनुमति, राका, सिनीवाली एवं कुछ का उल्लेख है और वे चरु (भात के हविष्य) की अधिकारी मानी गयी हैं। अति प्राचीन अतीत में इन शब्दों का निर्माण कैसे हुआ, यह कठिन समस्या है। 'अनुमति' की व्युत्पत्ति 'मन्' से की जा सकती है, किन्तु पूर्णमासी एवं चतुर्दशी के संयोग को यह संज्ञा क्यों दी गयी, इस पर प्रकाश नहीं पड़ता । सम्भवतः 'कुहू कुह (कहाँ) से बना है ( ऋ० ११२४|१०, १०/४०१२), जो उस दिन को कहा जाता है जब चन्द्रकला तिरोहित रहती है और जब आदिम लोग आश्चर्य में पड़ कर पूछते थे "चन्द्र कहाँ जाता है ?" किन्तु 'राका' एवं 'सिनीवाली' की व्युत्पत्ति दुस्तर है । अमावास्या को अथर्ववेद (७।७९, ८४।१-४ ) ने देवता के रूप में सम्बोधित किया है, जिनमें प्रथम मन्त्र में यज्ञ में उपस्थित होने तथा सम्पति एवं वीर पुत्र के लिए प्रार्थना की गयी है और दूसरे मन्त्र से संकेत मिलता है कि यह शब्द 'अमा' (एक साथ या घर) एवं 'वस्' (वास करना) से बना है । शत० ब्रा० में आया है---' राजा सोम, अर्थात् चन्द्र देवों का भोजन है, जब वह (चन्द्र) आज की रात्रि पूर्व या पश्चिम में नहीं दिखाई देता तब वह इस पृथिवी पर आता है और यहाँ जलों एवं ओषधियों में प्रवेश कर जाता है, वह देवों की सम्पत्ति एवं भोजन है, जब वह (जलों एवं ओषधियों के ) साथ रहता है तो वह (रात्रि) 'अमावास्या' कहलाती है' (१२६|४|५) । और देखिए शत० ब्रा० (६ २ २ १६) ।
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