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धर्मशास्त्र का इतिहास आदि), जुओं आदि तथा मानवों को अपने समान ही मानते हैं। मत्स्य में यहाँ तक आया है कि महर्षि लोग ऐसा यज करने को नहीं कहते, जिसमें हिंसा होती है; खेत में गिरे हुए अन्नों को एकत्र कर दान करने से, मूलों, शाकों एवं जलपूर्ण पात्र अपनी सामर्थ्य से दान करने से ऋषि लोग तप करते हुए स्वर्ग में प्रतिष्ठित हुए; अक्रोध, अलोम, दम (आत्म-निग्रह), भूतदया (जीवदया), शम (इन्द्रिय-निग्रह), ब्रह्मचर्य, तप, शौच (पवित्रता), सुकुमारता, क्षमा, धैर्य (निश्चलता)--यह सनातनधर्म का मूल है, जो कठिनता से पालन किया जा सकता है। ब्रह्माण्ड (२॥३१॥ ३५ : 'तस्मादहिंसा धर्मस्य द्वारमुक्तं महर्षिभिः) में आया है कि महर्षियों ने अहिंसा को धर्म का द्वार कहा है। पद्म (५।४३।३८) में आया है-'अहिंसा के बराबर कोई दान या तप नहीं है।' यह मनोरंजक एवं द्रष्टव्य है कि मत्स्य एवं ब्रह्माण्ड ने अहिंसा को 'सनातनधर्म' कहा है और पशु-यज्ञों की भर्त्सना की है। कूर्म का कथन है-- 'अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह (धन-सम्पत्ति को इकट्ठा न करना) को संक्षेप में 'यम' कहा जाता है, जिससे मनुष्यों के मन में पवित्रता (चित्त-शुद्धि) उत्पन्न हो जाती है। परम ऋषियों ने घोषित किया है कि सदैव विचार, शब्द एवं कर्म से किसी को क्लेश न देना अहिंसा है। अहिंसा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है, अहिंसा (के व्यवहार) से बढ़कर कोई सुख नहीं है। (वैदिक) विधि से जो हिंसा हो जाय वह अहिंसा ही घोषित है', (२।११।१३-१५)। उपनिषदों ने मर्यादित (सीमित ) अहिंसा की बात चलायी है, किन्तु सामाञ-फल-सुत्त जैसे मौलिक पालि ग्रन्थों ने सभी प्राणियों की हिंसा को वर्जित बतलाया है। पुराणों में अधिकांश ने जनता में यह विश्वास जमाने के लिए कि वे बौद्ध शिक्षाओं से किसी प्रकार पीछे नहीं हैं, असीमित अहिंसा पर बल दिया है। देश-काल विचित्र होता है, वह क्या-क्या परिवर्तन नहीं ला देता। लंका, बरमा, चीन, जापान आदि देशों के बौद्ध मछली, मांस खाने में कोई निषेध नहीं बरतते, किन्तु पुराणों के लगातार परामर्श पर लाखों भारतीय (न केवल ब्राह्मण, प्रत्युत वैश्य आदि, यहाँ तक कि वे शूद्र जो वैष्णव हैं) निराभिषभोजी हैं, यद्यपि शतियों पूर्व बौद्ध धर्म यहाँ से विलुप्त हो गया है।
यह द्रष्टव्य है कि कुछ पुराण अहिंसा के अतिरेक के विरुद्ध भी हैं। ब्रह्माण्ड एवं वायु का कथन है कि उस
५६. अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहौ। यमाः संक्षेपतः प्रोक्ताश्चित्तशुद्धिप्रदा नृणाम् ॥ कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा। अक्लेशजननं प्रोक्ता अहिंसा परमर्षिभिः॥ अहिंसायाः परो धर्मो नात्यहिंसापरं सुखम् । विधिना या भवेद्धिसा त्वहिसव प्रकीर्तिता॥ कूर्म २०१३-१५ । लिंगपुराण (८1८-९) ने मोग के आठ साधन प्रताये हैं जिनमें प्रथम यम है और पाँच साधनों को कूर्म में उल्लिखित कहा है। 'यम' कई प्रकार से वर्णित हैं। कूर्म, लगता है, योगसूत्र (२।३०-३१) का अनुसरण करता है, यया--'अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्यापरिपहा यमाः। शौचसन्तोष-तपः-स्वाध्याय-ईश्वरप्रणिधानानि नियमाः।' मनु (४।२०४) ने सामान्य रूप से कहा है कि व्यक्ति को यमों का सदैव व्यवहार करना चाहिए, सब लोग नियमों का पालन सदैव नहीं भी कर सकते हैं। किन्तु मनु ने यमों एवं एवं नियमों के नाम नहीं गिनाये हैं। मेधातिथि ने व्याख्या की है कि यम निषेधात्मक हैं, यथा अहिंसा, अस्तेय, सत्य, ब्रह्मवर्य, अपरिग्रह अर्थात् दूसरे की सम्पत्ति न ग्रहण करना अथवा दान न ग्रहण करना; तथा नियम भावात्मक क्रियाएँ हैं, यथा--व्यक्ति को वेदाध्ययन सदैव करना काहिए (मनु ४।१४७)। याज्ञ० (३॥३१२-३१३) ने दस यमों के नाम गिनाये हैं, यया--ब्रह्मचर्य, करुणा, शान्ति (सहिष्णुता), दान, कुटिल व्यवहार (आचरण) का अभाव, अहिंसा, अस्तेय, माधुर्य, इन्द्रिय-निग्रह एवं वस नियम। वैखानसस्मार्तसूत्र (९-४) ने दस यमों के नाम लिये हैं।।
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