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अहिंसा की प्रशंसा एवं समाजसेवा के साधन
४५३ व्यक्ति (आततायी या साहसिक) को, जिसके मर जाने से बहुत-से लोग सुख से जीवन व्यतीत करते हैं, मार डालना न पातक है और न उपपातक, अर्थात् इससे न बड़ा पाप लगता है न छोटा पाप।"
पूर्त-धर्म पर पुराण अत्यन्त बल देते हैं, यथा जनकल्याण कार्य, दान, समाज-सेवा, दरिद्रों एवं दुखियों की सेवा आदि करने पर। ऋग्वेद में 'इष्टापूर्त' शब्द एक बार आया है-५८ 'तुम परम व्योम में अपने पितरों (पूर्व पुरुषों), यम एवं इष्टापूर्त (यज्ञों एवं जनकल्याण के लिए किये गये कर्मों से उत्पन्न फल) के साथ मिल जाओ।' 'इष्ट' शब्द ऋग्वेद में कई स्थानों पर आया है (१।१६२।१५, १११६४।१५, १०।११।२, १०८२२), किन्तु केवल ऋ० (१०।१२।२) को छोड़कर, जहाँ यह 'यज्ञ' के अर्थ में प्रयुक्त-सा लगता है, कहीं भी इसका अर्थ निश्चित नहीं है। 'पूर्त' ऋग्वेद (६।१६।१८, ८१४६।२१) में आया है, किन्तु अर्थ निश्चित नहीं हो पाता। 'इष्टापूर्त' शब्द कतिपय उपनिषदों में आया है। छान्दोग्योपनिषद् (५।१०।३) में आया है-'किन्तु जो लोग ग्राम में रहते हुए यज्ञों का जीवन बिताते हैं, जनकल्याण का कार्य करते हैं एवं दान देते हैं, वे धूम आदि की ओर जाते हैं। इसी प्रकार प्रश्नोपनिषद् (११९) में आया है-'वे, जो यज्ञों का ढंग व्यवहृत करते हैं तथा वे जो जनकल्याण के कार्म को ही कर्तव्य समझते हैं, केवल चन्द्रलोक को पहुँचते हैं और पुनः इस लोक में लौट आते हैं।' मुण्डकोपनिषद् में कथित है-'मूढ (भ्रमित) लोग, जो यज्ञों एवं जनकल्याण के कार्यों को ही उत्तम कार्य समझते हैं, किसी अन्य कार्य को उनसे श्रेयस्कर नहीं मानते, वे स्वर्ग की चोटी पर अपनी सुकृति का फल भोगकर पुनः इस लोक में या इससे हीन लोक में प्रवेश करते हैं।' मनु (४।२२७) ने 'इष्ट' एवं 'पूर्त' का उल्लेख किया है और प्रतिपादित किया है कि व्यक्ति को प्रसन्न होकर यज्ञिय दान एवं पूर्त प्रकार के दान आदि का व्यवहार सुपात्र ब्राह्मण की प्राप्ति पर सामर्थ्य के अनुसार करना चाहिए। अमरकोश ने 'इष्ट' को यज्ञों के एवं 'पूर्त' को कूप, तालाब खुदवाने आदि के अर्थ में लिया है। मार्कण्डेय (१६।१२३-१२४) ने निम्नोक्त ढंग से इन्हें परिभाषित किया
५७. यस्मिस्तु निहते भद्रे जीवन्ते बहवः सुखम्। तस्मिन् हते नास्ति शुभे पातकं चोपपातकम् ॥ ब्रह्माण्ड २॥३६॥१८८; वायु ६९।१६२ (यहाँ जीवन्ते के स्थान पर लभन्ते आया है)। यही बात दूसरे शब्दों में ब्रह्मपुराण (१४१।२२) में आयो है, यथा--'यस्मिन्निपातिते सौख्यं बहूनामुपजायते । मुनयस्तद्वधं प्राहुरश्वमेषशताधिकम् ॥' कल्पतर (गृहस्थकाण्ड, पृ० ३००) ने इसे वायु का माना है (थोड़ा पाठान्तर है, यथा-जीवन्ते के स्थान पर एधन्ते आया है)।
५८. सं गच्छस्व पितृभिः सं यमेनेष्टापूर्तेन परमे व्योमन् । ऋ० (१०।१४।८); इष्टस्य मध्ये अदितिनि धातु नो भ्राता नो ज्येष्ठः प्रथमो वि वोचति ॥ ऋ० (१०११२२)।
५९. अप य इमे ग्राम इष्टापूर्ते दत्तमित्युपासते ते धूममभिसम्भवन्ति धूमावात्रिम्...। छा० उप० ५।१०।३। तो ह वै तदिष्टापूर्ते कृतपिरयुपासते ते चान्द्रमसमेव लोकमभिजयन्ते । त एव पुनरावर्तन्ते। प्रश्न० १०९; इष्टापूर्त मन्यमाना वरिष्ठं नान्यच्छ्यो वेदयन्ते प्रमूढाः। नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वाविशन्ति । मुण्डकोपनिषद् ॥२॥१०॥
६०. दानव नियवेत नित्यमैष्टिकपौतिकम्। परितुष्टेन भावेन पात्रमासाद्य शक्तितः॥ मनु (४।२२७); 'त्रिष्वय क्रतुकर्मेष्टं पूर्त खातादिकर्मणि।' अमरकोश।
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